Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 310
________________ LAUTUNZRHAAAAACARALANARA ATAULASĪBASANA ____ अर्थ - सचित्त में ढका हुआ देना, दूसरों को दान देने की कह देना, सचित्त पदार्थ में रखकर भोजन देना और ईर्ष्या भावधारण कर देना इस प्रकार ये पाँच अतिचार अतिथि संविभाग व्रत के होते हैं। भावार्थ - १. सचित्त वस्तु से ढंका हुआ अर्थात् कमलपत्र आदि से ढंका हुआ आहार देना यह पहला अतिचार है। २. जिस समय अतिथि साधु तपस्वी भोजन के लिए घर आ जाय उस समय किसी कार्य की तीव्रता से स्वयं तो दूसरे कार्य में लग जाग और किरी अन्य दाता को कह दे कि इन्हें तुम दो मुझे कार्य है ऐसा कहना दूसरा अतिचार है। इस अतिचार से उपेक्षा भाव सिद्ध होता है। ३. सचित्त कमलपत्र केले के पत्ते आदि सचित्त वस्तु में रखकर आहार देना तीसरा अतिचार है। ४. भिक्षाकालको छोड़कर दूसराकाल अकाल है, उस काल का उल्लंघन कर आहार देना चौथा अतिचार है। जैसे साधु का पड़गाहन कर घर ले आये और उन्हें आसन पर बिठाकर स्वयं बीच-बीच में दूसरे कार्य में लग जाने से आहार देने में विलम्ब कर लिया जिससे साधु का आहार का समय निकल गया ऐसी अवस्था में साधु नहीं ठहर सकता इसलिए यह अतिचार हुआ। भिक्षाकाल सूर्योदय के तीन घड़ी पश्चात् और सूर्यास्त के तीन घड़ी पूर्व का काल भिक्षाकाल है जिसे प्रथमबेला और द्वितीय बेला कहते हैं। ५. दूसरे दाता के गुणों की सराहना न करते हुए मन में ईर्ष्याभाव को धारण करते हुए अनादर पूर्वक दान देना पाँचवां अतिचार हैं। यह सब दोष भक्ति में कमी एवं प्रमाद उत्पन्न करने वाले हैं। इसलिए अतिथि संविभाग व्रत धारण करने वाले गृहस्थ को इनसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ १५ ॥ XAURREANA AURRERA ANTANARA ARARANASAKAN धनि श्रावकाचार- ३०८

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