Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 299
________________ ZASASTEREAS Sa जाय और स्वयं लेते समय ऐसे बांट - तराजू से लेना जिससे अधिक वस्तु आ जाय यह घाटि दे नामका अतिचार है। इस प्रकार इन अतिचारों से व्रत में कुछ दूषण होने से चोरी का अंश रूप से प्रयोग होता है। अतः इस व्रत में दृढ़ता लाने के लिये नीति पूर्वक कमाये गये द्रव्य से अपनी आय के भीतर हो आजीविका चलाने का संकल्प अवश्य करें । ६ ॥ • ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार अधिक चाह क्रीड़ा अनंग, अनव्याहित से प्यार । पर विवहा कुलटा गमन, ब्रह्मचर्य अतिचार ॥ ७ ॥ अर्थ - काम की अधिक लालसा रखना, काम सेवन से भिन्न अंगों के द्वारा काम क्रीड़ा करना, जिसका किसी से विवाह नहीं हुआ उससे प्यार करना, दूसरे के पुत्र-पुत्रियों का विवाह करवाना, व्यभिचारिणी स्त्रियों से सम्बन्ध रखना ये पांच अतिचार ब्रह्मचर्याशुव्रत के अतिचार हैं । भावार्थ - १. अधिक चाह - काम की तीव्र लालसा रखना, निरन्तर उसी के चिन्तन में लगे रहना, स्वदारसंतोष व्रत होने पर भी स्वस्त्री के साथ रमण करने की तीव्र वांछा होना, काम उत्तेजक निमित्तों की संयोजना करना अधिक चाह अतिचार हैं। ६. चौर प्रयोग चौरार्धा, दान विलोप सदृश सन्मिश्राः । हीनाधिक विनिमानं, पञ्चास्तेये व्यतिपाताः ॥ ५८ ॥ र. श्रा. | अर्थ - १. चोर को चोरी करने के प्रयोग सिखाना चौर प्रयोग है । २. दान देकर या चोरी की वस्तु को अल्प मूल्य देकर खरीदना चौरार्थादान है । ३. राजा की आज्ञा का उल्लंघन करना विलोप है । ४. सहशसन्मिश्राः - अल्पमूल्य की वस्तु को बहमूल्य वस्तु में मिश्रण कर क्रय-विक्रय करना सदृश सन्मिश्र है और तौलने के बाट आदि माप कम अधिक रखना हीनाधिक विनिमान है ये ५ अचौर्याव्रत के अतिचार हैं। इनका त्याग करना चाहिए ॥ ६ ॥ - CACACACAVAYACASASAYHEALACHCACALASA: धर्मानन्द श्रावकाचार २९७ - LABASAVALA ·

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