Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

View full book text
Previous | Next

Page 288
________________ SANĀK UZRAUDZASABASABASABAAAAAAA करें एवं मरण का समय आने पर पंच परमेष्ठी के गुणों का स्वरूप ध्याता हुआ भार रूपी इस नाशवान शरीर का त्याग करें ॥ १३ ॥ .इसका फल सबहि कहत सन्यास में, मृत्यु समय चित देय । सब कषाय के त्याग से, पर भव तप फललेय ॥१४॥ अर्थ - सभी कषायों का त्याग करके मरण के समय सन्यास व्रत में चित्त को लगाना ही पर भव में तपस्या का फल प्राप्त करना है ऐसा सभी ने कहा है। भावार्थ - जीवन भर किये गये तप रूपी मन्दिर का शिखर सन्यास या सल्लेखना है जैसे मंदिर की शोभा शिखर है, राजा की शोभा मन्त्री से है, तालाब की शोभा कमल से हैं, नारी की शोभा शील से हैं वैसे ही तप की शोभा सल्लेखना रूपी शरीर से है। यदि सन्यास पूर्वक मरण होता है, तो तप का फल भी प्राप्त होता है अन्यथा तप का फल प्राप्त नहीं होता। अतः मरण के अंत समय में परिणामों को बहुत सम्हालकर रखना चाहिये अन्यथा जिंदगी भर किये गये व्रत तप पर पानी फिर जाता है एवं वह अनंत संसारी बन जाता है। इसलिए मरण के समय अपने चित्त को सल्लेखना में लगाते हुए तपस्या का फल प्राप्त करें ।। १४ ॥ १३. पंच नमस्कार मनास्तु तं त्यजेत् सर्व यत्लेन । अर्थ - जो निरंतर पंच परमेष्ठी के वाचक अपराजित मंत्र णमोकार मंत्र का ध्यान करने के इच्छुक हैं उन्हें पर संयोग का सर्व प्रकार उपाय कर त्यागने का प्रयत्न करना चाहिए ।।१३।। १४. १. अन्तः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकल दर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यं ।। १२३ ।। २. श्रा. चा.॥ २. नीयन्तेऽत्र कषायाहिंसाया हेतवो यतस्तनुतां । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसा प्रसिद्ध्यर्थं ॥... SaruRASAREERSasasasaramasasReadeaRIBAHRAIsasaan धर्माद श्रावकाचार २८६

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338