Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 289
________________ KAREEResusumArasseSaasaranMASTEASERealSRISMEAssosa • अष्टमाध्याय का सारांश -- सल्लेखन व्रतकरण से, शुद्ध आतमा होय। महावीर मरते समय पालहुं बुध सब कोय ॥ १५ ॥ अर्थ - सल्लेखना व्रत को करने से आत्मा शुद्ध निरंजन, निराकार, अविनाशी मोक्ष पद को पाता है त प्रत्येक नितेनी प्राणी के सम्म इस व्रत का मन, वचन, काय से पालन करना चाहिये ऐसा आचार्य महावीरकीर्ति जी महाराज ने कहा है।। १५ ॥ इति अष्टम अध्याय ...अर्थ - १. महाव्रत धारण कर अनेक वर्षों पर्यन्त घोर तप करने का अन्तिम मरण समय सम्यक् सल्लेखना करना है। सर्वज्ञ वीतराग प्रभु का यही उपदेश है। अतएव जब तक शरीर अवयव स्वस्थ हैं, इन्द्रियाँ अपने कार्य में समर्थ हैं, आत्मशक्ति धैर्य रूप वैभव है तब तक निरंतर शक्ति अनुसार समाधि मरण का प्रयत्न करना चाहिए। २. समस्त कषायें हिंसा की पर्याय है अर्थात् जहाँ कषाय हैं वहाँ हिंसा अवश्य होती ही है। इसलिये अहिंसाधर्म का निरतिचार पालन करने के इच्छुक पुरूषों को कषायों को कृश-क्षीण करने का प्रयत्न करना चाहिए। सल्लेखना सिद्धि में कषायों को कृश करने का उपदेश का उद्देश्य भी अहिंसा धर्म के रक्षण का ही है। अतः धर्म अहिंसा सिद्धयर्थ कषायों का परिहार करना ही चाहिए।। १४ ॥ १५. इति यो व्रत रक्षार्थ सततं पालयति सकल शीलानि । वरयति पतिवरेव स्वयमेव तमुत्सका शिवपद श्रीः॥ १८०॥ पु. सि. उ. ॥ अर्थ - जो इन पाँच अणुव्रतों की रक्षा करना चाहता है उसे इन सातशील तीन दिव्रतादि गुणवतों का और सामायिकादि चार शिक्षाव्रतों का भी प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिए । इस व्रत पालक श्रावक को मोक्ष रूपी लक्ष्मी अतिशय उत्कण्ठित होकर स्वयंवर की कन्या के समान स्वयं ही स्वीकार कर लेती है। अर्थात् जिस प्रकार स्वयंवर मण्डप में कन्या अपने योग्य वर को चुनकर उसके गले में वरमाला डाल देती है उसी प्रकार व्रती श्रावक को मुक्ति लक्ष्मी कन्या प्राप्त होती है ॥ १५ ॥ X8715AVASARANAUASANASANA ATARACA BasaestaraNA धनानन्द श्रावकाचार-२८७

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