Book Title: Dharmanand Shravakachar
Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata
Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur

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Page 285
________________ SAGARACAERCR • और भी - ANANASAHASANNASAHASANAN तन पिंजर में कैद तुम, जनमत से मरणांत । मृत्यु मित्र बिन की तुम्हें छूटवें तन कर अंत ॥ १० ॥ अर्थ - जन्म से लेकर मरण तक यह आत्मा शरीर रूपी कारागृह में कैद है अतः इस शरीर रूप पिंजरे से मृत्यु रूपी मित्र के बिना और तुम्हें कौन छुड़ावेगा ? भावार्थ - यह जीव गर्भ से लेकर मरण अवस्था तक शरीर रूपी पिंजरे में कैद रहा और सदा ही क्षुधा, तृषा रोगों की वेदना सहता रहा इन्द्रियों के आधीन हुआ अनेक कष्ट सह रहा है, अनेक प्रकार के रोगों का दुःख भोगना, दुष्टों द्वारा ताड़न-मारन, कुवचन अपमान आदि सहना, स्त्री- पुत्रादि के आधीन रहना, इस देह को कहाँ तक ढोता। यह शरीर आत्मा को अनेक कष्ट देता है अतः ऐसे कृतघ्न देहरूपी पिंजरे से मृत्यु रूपी मित्र के अलावा और कोई नहीं छुड़ाने में समर्थ हो सकता है ॥ १० ॥ ... अर्थ - जीव को मृत्यु परमोपकारी है क्योंकि यह जीर्ण-शीर्ण, रूग्ण, . गलित शरीर से निकाल कर सुन्दर स्वस्थ नवीन शरीर प्राप्त करा देती है। जिस प्रकार असाता वेदनीय कर्म का पराभव कर सातावेदनीय का उदय आनन्दकारी होता है। ऐसे उपकारी मरण के आने पर सत्पुरुषों को मरण प्रमोदकारी क्यों नहीं होगा ? होगा ही, होता ही है। वे कायरों के समान भीत नहीं होते अपितु निर्भयता से उसका स्वागत करते हैं ॥। ९ ॥ १०. १. सर्वं दुःखप्रद पिण्ड दूरी कृत्यात्मदर्शिभिः । मृत्यु मित्र प्रसादेन प्राप्यन्ते सुख सम्पदा || २. आगर्माद्दुःख संतप्तः प्रक्षिप्तो देह पंजरे । नात्मा विमुच्यतेऽन्येन मृत्युभूमिं पतिं विना ॥ - अर्थ आत्म स्वरूप परिज्ञानी, आत्मदर्शी मृत्यु को मित्र समान समझते हैं। कारण समस्त दुःख समूह का मूल कारण शरीर हैं, जितनी भी आधि-व्याधि रोग सन्ताप हैं सभी शरीराश्रित ही हैं। यही नहीं कुटुम्ब, परिवार सभी शरीर से ही सम्बन्ध.. LAUASKELERENESEA IAGARAVÁNÍCAYASALACASAMANAENEAKA धर्मानन्द श्राचकाचार २८३

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