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XAHASA ARANANERERARUNRRALANÜRURLER ARARANASANA • कलुषता का त्याग
मन कालुष्य विषाद भय गृह चिंता सब त्याग । तब ही इस व्रत लहै, ना श्रावका लहान ७॥
अर्थ - सल्लेखना धारी श्रावक कालुषता, विषाद, भय, गृहचिंता का मन से त्याग करे तब ही उस श्रावक को इस सल्लेखना व्रत का उत्कृष्ट फल प्राप्त होता है और वह बड़ा भाग्यवान बनता है।
भावार्थ - क्षपक मन के परिणामों को स्वच्छ कर तथा क्रोधादि विकारी भावों को सात प्रकार के भय, धन, परिग्रह, स्त्री, पुत्र, मित्र, बांधव आदि गृहस्थ सम्बन्धी चिंता एवं विषाद राग-द्वेष सभी का त्याग करें तब ही वह भाग्यवान महा पुरुष सल्लेखना का फल प्राप्त करने में समर्थ होता है। क्योंकि विकारी परिणामों को त्याग किये बिना समता भाव नहीं आता और समता भाव के बिना सल्लेखना का फल नहीं मिल सकता ।।७।।
६. खम्मामि सव्व जीवाणां, सब्वे जीवा खमन्तु मे ।
मित्ती मे सव्व भूदेसु वैरं मज्झं ण केणवि॥ अर्थ - सर्व प्राण, भूद, जीव व सत्त्वों से मैं जीवन में पूर्ण शुद्धि से क्षमा याचना करता हूँ, मैं भी सबको नवकोटि से क्षमा करता हूँ। प्राणी मात्र के प्रति मेरा मैत्री भाव है। किसी के भी साथ मेरा वैर-भाव नहीं है। ७. शोके भयमवसाद, क्लेदं कालुष्य मरतिमपि हित्वा ।
सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाद्यं श्रुतैरमृतैः॥१२६ ॥ र. क. श्रा. अर्थ - शोक, भय, डर, विषाद, राग, द्वेष, अरति आदि को त्याग कर और अपने पूर्ण उत्साह, औदार्य, बल-पराक्रम से, प्रीति श्रद्धा से अमृत सदृश आगमशास्त्र श्रवण द्वारा चिन्तन द्वारा मन को प्रसन्न करें, निर्मल बनावें, वीतराग भावना, समताभाव जाग्रत करें। क्रोधादि कषायों के शमन करने का एक मात्र उपाय तत्त्व चिन्तन है, तत्व परिज्ञान करने का साधन वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत आगम ॥७॥ MacrasasanaSIESTRATORRERessmassasamasRSANABRemesex
धर्मानन्द श्राधकाचार-२८०