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अर्थ- जो मन से, वचन से, काय से तथा कृत, कारित, अनुमोदना से जितने भी पाप हमने किये हैं उनकी गुरु के सामने आलोचना करके अन्त समय • में पंच महाव्रत धारण करना चाहिए।
भावार्थ - सल्लेखनाधारी श्रावक मन, वचन और काय की सरलता पूर्वक तथा कृत कारित अनुमोदना से किये गये समस्त पापों की कपट रहित अति विनय पूर्वक एवं स्पष्ट भाषा में पाँच स्थावर काय एवं त्रसकाय जीवों की विराधना सम्बन्धी दोषों को, आहार सम्बन्धी दोषों को अयोग्य उपकरण आदि ग्रहण सम्बन्धी सदोष वसतिका सम्बन्धी गृहस्थ सम्बन्धी आसन पुलक सिंहासन आदि का स्पर्श एवं उपयोग कर लेने से उत्पन्न होने वाले दोषों को विस्तार और निर्भयता पूर्वक कहें तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, संन्यक्चारित्र मूलगुण व उत्तरगुणों में लगे हुए अतिचारों की निंदा गर्हा करता हुआ आलोचना करके अपने हृदय को निर्मल बना लें ॥ ४ ॥
सल्लेखना की विधि
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नेह वैर सबसे तजे परिग्रह दे सब छोड़ ।
छम छमावे स्व पर जन, शुद्ध भाव कर जोड़ ॥ ५ ॥
अर्थ- सल्लेखना धारी, राग-द्वेष का त्याग कर तथा समस्त परिग्रह को छोड़कर शुद्ध परिणामों से अपने स्वजन एवं परजन को हाथ जोड़कर क्षमा करें और उनसे भी क्षमा करावें ।
४. आलोच्य सर्वमेनः कृत कारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरण स्थायि निःशेषम् ॥ १२५ ॥
अर्थ - निम्न प्रकार आलोचना द्वारा परिणाम शुद्ध कर श्रावक भी मन, वचन, काय, कृत- कारित अनुमोदना से नवकोटि से सम्पूर्ण पापों का पूर्णतः त्याग कर स्थायी रूप से अपने शेष जीवन में पूर्ण महाव्रत धारण करता है ॥ ४ ॥
BANANACAUCASTERSAKAÇAKAÇAMCACACACATECATEGÈNE SI VE GEORGE VEJA मनिन्द श्रापकाचार २७८