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• ऐसी निरंतर भावना -
मृत्यु के पहले प्रतिदिवस, भाव सल्लेखन भाय ।
विधिवत् कर सल्लेखना करूं अंत सुख दाय॥ ३ ॥
,
अर्थ - अन्तकाल अर्थात् वर्तमान पर्याय त्यागने के पूर्व प्रतिदिन समाधिमरण प्राप्ति के लिये भावना भानी चाहिए। अर्थात् अन्त समय शुद्ध, निर्भय मृत्यु का सामना करते हुए आत्मा व पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए प्राण विसर्जन हो, इस लक्ष्य से निरन्तर चिन्तवन करना चाहिये । निष्प्रमाद समाधि का अभ्यास करें । अभ्यास से दुष्कर कार्य भी सुकर - सरल हो जाता है। अतः विषय कषाय, आहार त्याग का अभ्यास करना आवश्यक है। क्योंकि 'अन्त भला सो सब भला' इस शब्दों का प्रयोग मरण के लिये किया गया है। अतः सुन्दर सम्यक् समाधि मरण के इच्छुक जीव को प्रतिदिन समाधिमरण की भावना भानी चाहिये ॥ ३ ॥
• पापों की आलोचना-
मन वच तन कृत आदि से, जोयहं कीने पाप । आलोचन कर उन हरु अंत महाव्रत थाप ॥ ४ ॥
३. मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावना परिणतोऽनागतमपि पालवेदं शीलम् ॥
अर्थ - जीवन के साथ मरण अवश्यंभावी है। परन्तु उसका समय कोई निश्चित ज्ञात नहीं होता। इसका आयु आदि से भी अविनाभाव सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता क्योंकि मनुष्यगति में अकाल मरण भी संभव है। आत्मार्थी सन्त जन पूर्व से ही दृढ़ संकल्प करते हैं कि मैं अपने मरण काल में अवश्य ही समाधि सल्लेखना धारण कर ही मरण करूँगा । इस प्रकार का दृढ़ संकल्पी भावीकाल की अपेक्षा भी अपने शील स्वभाव से सल्लेखना व्रत का पालन करता है ॥ ३ ॥
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धर्मानन्द श्रावकाचार २७७