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* अथ सप्तम अध्याय *
शिक्षाव्रत का लक्षण
शुद्ध आतम अभ्यास के शिक्षक शिक्षाव्रत । जप, प्रोषध भोगादि पुनि अतिथि दान करि नित्त ॥ १ ॥
अर्थ - जिनके प्रभाव से शुद्ध आत्म के अभ्यास की शिक्षा तथा विशेष श्रुतज्ञान का अभ्यास और जिनसे मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा मिले उन्हें शिक्षात्रत करते हैं। ये शिक्षद्वारा चार प्रकार के कहे गये हैं । १. सामायिक, २. प्रोषधोपवास, ३. भोगोपभोग, ४ अतिथि सत्कार ॥ १ ॥
• सामायिक का लक्षण
राग द्वेष तज सवन से धरि उर समताभाव ।
शुद्ध ध्यान की प्राप्ति हित, सामायिक मन लाव ॥ २ ॥ अर्थ- सम् उपसर्ग पूर्वक इण धातु से समय बनता है, सम का अर्थ एकी भाव है, अय का अर्थ गमन है, जो एकी भाव रूप से गमन किया जाय उसे समय कहते हैं उसका जो भाव है उसे सामायिक कहते हैं। सामायिक करने
१. १. यस्माच्छिक्षा प्रधानानि तानि शिक्षा व्रतानि वै ।
२. दिग्देशानर्थदण्ड विरति सामायिक प्रोषघोपवासोपभोग परिभोग परिणामातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च ॥ त. सू. २१ अ. ७ ॥
अर्थ- जिनके द्वारा अणुव्रतों के पालन करने की शिक्षा प्राप्त हो वे प्रधान रूप से शिक्षाप्रदायी होने से शिक्षाव्रत कहलाते हैं।
२. पञ्चाणुव्रत ग्रहण कर गृहस्थ दिव्रत, देशव्रत, अनर्थदण्ड त्याग व्रती और सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण, एवं अतिथि संविभाग व्रतों से सम्पन्न होता है। अर्थात् ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत इन सप्त शीलव्रतों को भी धारण करता है ॥ १ ॥
ZACALAGAAGAGAU. INENBACAUNEAZARTEA धर्मानन्द श्रावकाचार २५१
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