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WRITESHEREReshameREATREASSASRAEMEREKEAKASARAMETER ___ अर्थ - व्रती श्रावक अणुव्रतों के रक्षणार्थ तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, इस प्रकार सात शील व्रतों का निरतिचार पूर्वक पालन करता है। वह श्रावक शीघ्र ही स्वर्गादिक सुखों को प्राप्त करते हुए अतिशीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। उसको मोक्ष प्राप्त करने में देर नहीं लगती है ॥ ३३ ॥ • इति सप्तम अध्याय का सारांश
शिक्षाव्रत आचार से, शुद्ध आतमा होय।
महावीर यह व्रत विधी, रचो शास्त्र लखि सोय ।। ३४ ।।
अर्थ - जो श्रावक निरतिचार पूर्वक शिक्षाव्रतों का पालन करता है, उस श्रावक के व्रत उपचार रूप से महाव्रत के समान हो जाते हैं एवं उसकी आत्मा परम्परा से शुद्ध हो जाती है। इस प्रकार आचार्य गुरूदेव महावीरकीर्ति जी महाराज ने यह व्रत विधि विधान का शास्त्र लिखा है।३४ ॥
K३ इति सप्तम अध्याय
...कारण कि लोभ हिंसा की पर्याय है, दाता इस लोभ का त्याग कर ही दान देता हैकृपण दान दे नहीं सकता । अस्तु अतिथियों-महाव्रतियों को दान देने में हिंसा का त्याग होता है। कहा भी है "यतः अत्र दाने हिंसा पर्यायः लोभः निरस्यते अतिथि वितरणं हिंसा व्युपरमणमेव इष्टम्" दान में हिंसा का पर्याय लोभ नष्ट होता है इसलिए दान हिंसा से रहित ही होता है। पात्रदान अवश्य करना चाहिए ।। ३२॥ ३३. पंचाणुव्रत पुष्टयर्थं पाति यः शील सप्तकं ।
व्यतीचार सदृष्टिः सवत्तिकः श्रावकोत्तमः। अर्थ - जो भव्य, संसार भीरू अपने पाँच अणुव्रतों को पुष्ट करने के लिए सात शीलों, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का भी निरतिचार पालन करता है वह सम्यग्दृष्टि उत्तम व्रती श्रावक-द्वितीय व्रत प्रतिमाधारी कहलाता है। अर्थात् बारह व्रतों का निरतिचार पालक श्रावक व्रती श्रावक है ॥ ३३॥ wasnssesANIERSANSARAMMARasPERERNATASAREERARAER
धर्मानन्द श्रावकाचार-~२७३