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दुःश्रुति
रागद्वेष विषयादि के, वर्धक जितने शास्त्र ! श्रवण पठन उन चितवन, दुःश्रुति कहिये भ्रात्र ॥ १० ॥
अर्थ - जो शास्त्र, आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, अहंकार व पंचेन्द्रियों के विषयों की वासना से मन को संक्लेशित करते हैं, उन शास्त्रों का श्रवण करना दुःश्रुति नाम का अनर्थदण्ड कहलाता है ॥ १० ॥
९. १. असि मषि: कृषिर्विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवन हेतवे ।।
२. तत्र वृत्तिं प्रजानां स भगवानमति कौशलात् । उपादिशत सरागो हि सतदासीत् जगद् गुप्तः ॥
अर्थ - कर्म भूमि के प्रारम्भ में कल्पवृक्ष लुप्त प्रायः होने लगे। प्रजा उदरपूर्ति करने में असमर्थ हो गई। भगवान आदिश्वर राजा से प्रार्थना की। उस समय ऋषभदेव ने असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट् कर्मों के करने का उपदेश देकर प्रजा का जीवन रक्षित किया।
भगवान ऋषभदेव राजा ने अपनी मति बुद्धि की कुशलता तीक्ष्ण दृष्टि से सराग चर्या का उपदेश दे प्रजा को गृहाश्रम की शिक्षा देकर उन्हें निर्भय सुरक्षित किया। इस प्रकार प्रभु “जगद्गुप्त" नाम से प्रसिद्ध हुए ।। ९ ।।
१०. रागादि वर्द्धनानां दुष्ट कथानामबोध बहुलानां ।
न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जन शिक्षणादीनि ।। १४५ ।। पु. सि. अर्थ - राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, निन्दा, चुगली आदि के बढ़ाने वाली तथा अज्ञान बहुल दुष्ट कथाओं का सुनना, सुंग्रह करना, सीखना आदि कभी भी नहीं करना चाहिए। नॉवेल, अखबार, स्त्रीकथा, राजकथादि विकधा युक्त साहित्य के पठन-पाठन, श्रवण- श्रावण का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। न करे और न सुने। दुःश्रुति अनर्थदण्ड से बचना चाहिए ॥ १० ॥
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धर्मानन्द श्रावकाचर २४६