________________
RAKKARASARANAERTARANASASARANPERDANABABASA R • परियह के भेद
बाह्याभ्यंतर योग से परिग्रह के दो भेद।
चौदह आभ्यंतर कहे, बाह्य जान दश भेद ।। २५ ।।
अर्थ - बाह्य और अभ्यन्तर के योग से परिग्रह के दो भेद हैं। १. चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह, २. दश प्रकार के बाह्य परिग्रह ॥ २५ ॥ • आभ्यन्तर के नाम
तीन वेद क्रोधादि चउ रति अरति मिथ्यात्व। हास्य शोक भय ग्लानि ये, अंतर ग्रंथ विख्यात ॥२६॥
अर्थ - तीन वेद अर्थात् स्त्री वेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद, क्रोध-मानमाया एवं सोमये चार काया रति, रति, मिया, सार, शोक, भय एवं ग्लानि ये चौदह प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह हैं।।
भावार्थ - आत्मा के कषायरूप वैभाविक भाव को अभ्यन्तर परिग्रह कहते हैं अर्थात् “ममेदं रूप" यह मेरा है यह तेरा है इस रूप जो आत्मा का मोहरूप परिणाम है उसी का नाम अभ्यन्तर परिग्रह है। इस परिग्रह में सभी
२५. अति संक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाम्यंतरश्च बाह्यश्च । प्रथमश्च चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु । ___ अर्थ - संक्षेप से परिग्रह के दो भेद हैं - १. आभ्यन्तर और २ बाह्य भेद से। प्रथम आभ्यन्तर परिग्रह से चौदह भेद हैं - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, वेद, क्रोध, मान, माया, लोभ और राग, द्वेष एवं मिथ्यात्व।
बाह्य परिग्रह सचित्त और अचित्त पदार्थों की अपेक्षा दो प्रकार का है। दोनो सामान्य से १० प्रकार का होता है। उमास्वामी ने लिखा है १. क्षेत्र, २. वास्तु, ३, हिरण्य-जाति, ४. सुवर्ण, ५. धन, ६. धान्य, ७. दासी, ८. दास, ९. कुप्य, १०, भाण्ड ये १० प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं ।। २५ ॥ MALURONAVIRASANAKARARANQUATUNATARRANATARAKANINA
धर्मानन्द श्रावकाचार-२३२