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SaniaNNEMAMATKuTKATikaRMSANATANATASARANSasasana धारण कर लिया है किन्तु जब तक उनके हृदय में बाह्यभ्यतर परिग्रह के प्रति ममत्व परिणाम हैं तो वह मनुष्य परिग्रही ही है । अतः ममत्व भाव ही परिग्रह
है ॥ ३० ॥
• अपरिग्रही की पहचान
विषय चाह जिस मन नहीं, परिग्रह आरंभ हीन। ज्ञान ध्यान-तप मगन तो, श्रेष्ठ साधु वह चीन ॥ ३१॥
अर्थ - जो पञ्चेन्द्रिय विषयों की लालसा के वश नहीं है, आरंभ और चौबीस प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, निरन्तर ज्ञान-स्वाध्याय, ध्यान और व्रत उपवास आदि तप के पालन में तत्पर रहते है वही श्रेष्ठ साधु हैं ऐसा जानो।॥ ३१॥
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३०. मूर्छा लक्षण करणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य ।
सग्रन्थो मूर्छावान् विनाऽपि किल शेषसंगेभ्यः ॥ ११२ ॥ पु. सि. अर्थ - परिग्रह का लक्षण मूछा करने से, दोनों बाह्याभ्येतर परिग्रहों के साथ हिंसा की व्याप्ति सम्यक् प्रकार घटित हो जाती है। जहाँ-जहाँ मूर्छा है वहाँ-वहाँ परिग्रह अवश्य है । अतः स्पष्ट है जितना परिग्रह उसके मूछावान के पास, है उसके अतिरिक्त भी अन्य में मूर्छा होने से वह भी परिग्रह ही है। अर्थात् परिग्रह नहीं रहने पर मूर्छावान परिग्रही ही है ।। ३ ।। ३१. विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यान तपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥ र. श्रा. ।। अर्थ - जो साधु दिगम्बर मुनि पंचेन्द्रिय विषयों की आशा से सर्वथा विहीन है, आरम्भ और परिग्रहों का त्यागी है सर्वधा त्याग भाव सम्पन्न है तथा ज्ञान-आगम अध्ययन-स्वाध्याय, स्वात्म चिन्तन रूप शुभ ध्यान तथा बारह प्रकार के तपों के आचरण में यथाशक्ति प्रयत्नशील रहता है। वही साधु रत्न प्रशंसा के योग्य स्व-पर कल्याण कर्ता है ।। ३१॥ MERMinisandasTHANAINITIATSAMSUNGERSARAursana
भनिन्ध श्राग्वाधार-२३८