________________
XSARA Z A RRABRAGUESACALAUREATANANARINATA
अप्रमादि मुनि को वही, अहिंसा रूप फलेय ॥ १५॥ अर्थ - प्रमादी की अहिंसा भी हिंसा फल को देती है पर अप्रमादी मुनि द्वारा हुई द्रव्य हिंसा भी अहिंसा स्वरूप शुभ फल को देती है।
प्रमाद का सद्भाव भाव हिंसा का प्रतीक है और प्रमाद का अभाव अहिंसा का सूचक है। प्रमाद का हिंसा के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है क्योंकि ये दोनों सदा साथ-२ रहते हैं जैसे सूर्य के साथ-२ उसका प्रकाश भी मौजूद रहता ही है। प्रमाद के मिटते ही हिंसा का अस्तित्व भी मिट जाता है जो अप्रमत्त मुनिराज है, स्वानुभूति में निमग्न उनके श्वासोच्छ्वास आदि से जीव हिंसा यदि कदाचित् होती भी हो तो उनको लेशमात्र भी हिंसा का फल प्राप्त नहीं होता क्योंकि नाद का अभाव है ।। • हिंसा अहिंसा नहीं
अब यह बताते हैं कि अहिंसा लक्षण धर्म हेतु की गई हिंसा भी हिंसा ही है उसे भी अहिंसा नहीं कहेंगे -
देव अतिथि यज्ञादि हित, जे नर मारत जीव ।
वे नहि अहिंसा धर्म के, धारी होय कदीव ॥ १६ ॥ अर्थ - जो पूज्य पुरूष हैं ऐसे देव या अतिथि के लिए किंवा याज्ञिक धर्म आदि कार्य की सिद्धि के लिये कोई क्रूर हिंसा करके अपने को अहिंसक माने तो वह भी गलत है।
भावार्थ - जीव दया ही परम धर्म है। क्रिया काण्ड विशेष भी धर्म तब कहलाता है जब उसमें जीव दया का भाव सम्मिलित है। जीवदया ही परम विवेक है। विवेक के बिना होने वाले धार्मिक कार्य भी हिंसा रूप फल को ही देते हैं। उन्हें अहिंसामय धर्म का फल थोड़ा भी प्राप्त नहीं होता है ॥ १६ ॥
ACALAUAKARARARANASANAETA ARANATANA
धममिन्द श्रावकाचार-८१३१