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Natataas naunahasa UNARAZNANarava SALAMA
अर्थ - पर स्त्री सेवन को व्यभिचार कहते हैं । व्यभिचार कुकर्म है, दुःखोत्पादक कार्य है, पाप बन्ध का कारण है। कुकर्मी से घर और बाहर के परिजन पुरजन सब डरते हैं। उस व्यभिचार के कारण भव-भव में पाप के फल को भोगता हुआ वह दुःखी होता है ।। ३२॥
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___३२. यच्चेह लौकिकं दुखं परनारी निषेवने । तत्प्रसूनं मतं प्राझै नरक दारुणं फलं । यद्धि नास्ति स्वकं कान्तां साजार न कथं खला । विडाली यात्तित्पुत्रं स्वंसा किं मुंचति मूषिकां । २ दीक्षाकारातप्ता स्पृष्टा दहति पावक शिखेवमारयति योषिता भुक्ता प्ररूढ़ विष विटपि शाखेव । ३ । मलिनयति कुलं द्वितीयं दोष शिखेवोज्वलापि मल जननी, पापोपयुज्यमानापरवनिता तापने निपुणा ।
अर्थ - परनारी गमन के इस लोक में लौकिक कष्ट सहने पड़ते हैं, पर भव मे उसका फल है घोर दुःख भरे नरक में गमन । जो अपनी कान्ता को पाकर सन्तुष्ट नहीं है वह भला क्यों नहीं दुर्जन है, मूर्ख है ? जो बिडाली (बिल्ली) अपने ही पुत्र का भक्षण कर लेती है वह भला मूषों-चूहों को कैसे छोड़ सकती है। २. दीक्षा ग्रहीत साधु भी है, तो परस्त्री का स्पर्श मात्र भी अग्नि की शिखा समान उसे दहन कर देती है अर्थात् उसकी तप साधना को जला डालती है ! जो जन परनारी का सेवन भोगता है वह निश्चय विष वृक्ष की शाखा पर आरोहण कर मृत्यु पाता है, पराई स्त्री विषवृक्ष की शाखा समान है।
३. द्वितीय विडम्बना दोष यह है कि परस्त्री अग्नि की शिखा समान शुद्ध निर्मल उज्ज्वल कुल को कलंकित कर देती है। मल की उत्पादक, परनारी पुरूष को पाप में प्रयुक्त कर तप्तायमान, पीड़ा करने में अति चतुर होती है। अर्थात् अपने हाव, भाव, रंग, रूप, वागुर फंसा कामी पुरूष को पापी बनाकर बड़े कौशल से नरकगामी बना देती है ।। ___४. पराङ्गना लम्पटी अत्यन्त चिन्तातुर, भय से आकुलित रहता है, मति भ्रष्ट हो जाती है, अत्यन्त दाह पीड़ा का अनुभव करता है, तृष्णा के उग्र होने पर रूग्न होता है, अहर्निश नाना दुःखों का अनुभव करता है, बैचेन रहता है। मार-कामदेव दस बाणों का शिकार हो अन्तक के हाथों में जा पड़ता है. यह तो इस लोक की वार्ता है, परलोक में WasurusasasasardarmasasasanasarsasurkasamasRasana
धर्मानन्द श्रावकाचार-१९२