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• उच्च विचार-
जीव मात्र से मित्रता, गुणी जनों से प्रेम । दुःखी पर करुणा, विधर्मी पर मध्यम रहूँ में एम ॥ ३३ ॥
अर्थ - प्राणी मात्र पर मैत्री भाव, गुणी रत्नत्रयधारी पर अनुराग एवं दुःखी जीवों पर करुणा भाव होना और विधर्मी पर माध्यस्थ भाव रखना ही मेरा एक मात्र धर्म है। इन्हें महापुरूषों ने उच्च विचार कहा है ।
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मैत्री किसे कहते हैं ? भगवती आराधना ग्रन्थ में मैत्री का स्वरूप आचार्य इस प्रकार बताते हैं- अनन्त काल से मेरी आत्मा घटी यंत्र के समान इस चतुर्गतिमय संसार में भ्रमण कर रहा है। इस संसार में सम्पूर्ण प्राणियों ने मेरे ऊपर अनेक बार महान् उपकार किये हैं, ऐसा मन में जो विचार करना है वह मैत्री भावना है।
भयंकर, दारुण असह्य दुःखों से भरे नरक में जा पड़ता है। वहाँ लौह की पुतलियाँ जो अग्नि तप्त व वह्निशिखा उगल रही हैं ऐसी पुतलियों से बलात् चिपकाये जाते हैं। क्या यह कष्ट वर्णनातीत नहीं है ? अवश्य अपरिमित है।
५. पराई कान्ता के साथ रमण करने वाले की कोई भी क्रिया, कार्य किसी भी प्रकार से शान्ति देने वाली नहीं होती क्योंकि भयाकुल सतत् अतृप्त ही बना तप्तायमान रहता है उसे सुख कैसा ? देखा जाता है अनंग क्रीड़ारत रह निरंतर चंचल चित्तवृत्ति रहता है। उसका मन कहीं भी किसी भी कार्य में स्थिर नहीं होता ।
६. परनारी सेवन की इच्छा मात्र से उसे पाने की लालसावश होकर वह लम्पटी नहीं मिलने पर मूर्च्छित बेहोश होता है, तृषित हो उष्ण श्वांसों ओठ सुखाता है, अंग-अंग में पीड़ा सहता है, उसी के ध्यान में आसक्त हो ज्वर से तप्त हो जाता है। क्या इस प्रकार की स्थिति में स्त्री संभोग में सुख है ? यदि सुख होता तो क्यों त्याज्य होती ? यदि सुख नहीं है तो फिर कामिनियाँ क्यों न ज्वर स्वरूप हैं ? अर्थात् विषय भोग ही भयंकर तापोत्पादक ज्वर ही है ।। ३२ ।
SABAEACASAYAGACASTHACASASASANARAZZUASASACACAHAYAKA
धर्माभियक्ष श्रावकाचार १९३