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ABRUZASURARAUAKARANASASKRATAAN • अहिंसा का फल
हिंसा जड़ सब पाप की, क्रम-क्रम ताहि नशाय । इस विधि अहिंसाणुव्रती स्वात्मशुद्ध बनाय ।। ६॥
अर्थ - हिंसा सब पापों की जड़ हैं, इसका क्रम-क्रम से त्याग करने पर अहिंसाणुव्रती को स्वात्मोत्थ सुख की प्राप्ति होती है।
अमृतचन्द्राचार्य ने अपने “पुरूषार्थसिद्धयुपाय" ग्रन्थ में अहिंसा का फल बतलाया है -
हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसातु परिणामे। इतरस्य पुनर्हिसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत् ।। ५७ ।। अर्थ - किसी को तो अहिंसा उदयकाल में हिंसा के फल को देती है और किसी को हिंसा अहिंसा के फल को देती है अन्य फल को नहीं। जैसे - किसी जीव ने किसी जीव के घात करने अथवा उसे हानि पहुँचाने का विचार किया और उसी प्रकार का उद्योग करना आरंभ किया परन्तु दूसरा जीव अपने पुण्योदय से बच गया अथवा बुरे की जगह उसका भला हो गया तो ऐसी अवस्था में हिंसा नहीं होने पर भी घात करने की चेष्टा (भावना) करने वालों को हिंसा का ही फल मिलेगा। तथा किमी पुरुष ने एक चिड़िया के बच्चे को सड़क के किनारे पड़ा हुआ देखकर सुरक्षित रहने के अभिप्राय से एक घोंसले में रख दिया परन्तु वहाँ से उसे एक पक्षी पकड़कर ले गया और उसे मार डाला अथवा किसी रोगी को वैद्य ने अच्छा करने के लिए औषधि दी, परन्तु उस औषधि से वह मर गया तो वैसी अवस्था में उस वैद्य को एवं घोंसलें में बच्चे को रखने वाले पुरुष को हिंसा होने पर भी अहिंसा का फल मिलेगा। कारण उनके परिणामों में हिंसा का किंचिन्मात्र भी भाव नहीं है प्रत्युत उनके भाव जीव के बचाने के हैं, वैसे परिणामों के रहने पर यदि उनसे किसी निमित्तवश बाह्य हिंसा MAAKKANAKARARAASLAUAKARAMANATAKARAN
धर्मानन्द वाचकाचार-२१०