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XAVARGUANGARALARARATASARAKATĀNARANASAERBAKARA • असत्य का लक्षण
जो कुछ कहा कषाय वश, स्व-पर अहित कर वैन। वह सब मिथ्या-वचन सम, चार भेद दुःख दैन॥८॥ अर्थ - जो मनुष्य कषाय के वशीभूत होकर, स्व-पर का अर्थात् अपने
...३. सत्यमपि विमोक्तव्यं परपीडा मापदुःख जनक। पापं विमोक्तुकामैः सुजनरिव पापिनां वृत्तम् ।।
अर्थ - आचार्य परमेष्ठी देशाव्रत धारी श्रावक के सत्याणुव्रत का स्वरूप निरूपण करते हुए कहते हैं कि जो पाप भीरू श्रावक स्थूल अर्थात् राजा दण्ड दे प्रजा अपवाद करे ऐसा असत्य भाषण नहीं करता और विपत्ति आने पर भी अन्य से भी इस प्रकार असत्य भाषण नहीं करवाता उसके इस व्रत को सत्पुरूष-महापुरूष-आचार्यादि सत्याणुव्रत कहते हैं। इसका विशेष अभिप्राय यह है कि धर्म संकट, धर्मात्माओं पर विपत्ति आने पर, जीवरक्षण के अभिप्राय से यदि असत्य भाषण करना भी पड़े तो उसका व्रत भंग नहीं होता, वह भी सत्य में ही गर्भित है।
२. सभ्य यानी सत्पुरूष धर्मनिष्ठ हैं, वचन का महत्व समझते हैं वे दृढ़ प्रतिज्ञ सज्जन पूछने पर भी भय से, द्वेष से, यहाँ तक कि गुरु के स्नेह से भी अपने मुख से असत्य भाषण नहीं करते वे स्थूल सत्यव्रतधारी हैं। अभिप्राय यह है कि अपने स्वार्थ के लिए जो सामान्य रूप असत्य वचन प्रयोग नहीं करता है वह स्थूल असत्य त्यागी सत्याणुव्रती है। अपने स्वार्थ को परको कष्टकारी वचन नहीं बोलना सत्याणुव्रत है।
३. पापभीरू पुरुष ऐसा सत्य भी भाषण नहीं करता जिससे पर जीवों को पीड़ा हो, उनका वध हो, जो सत्य अधिक आरम्भ कारक, ताप उपजाने वाला, दुःखदायक हो क्योंकि इस प्रकार का सत्य असत्य सम ही आगम में माना गया है। सज्जन समान होने पर भी पापकारी व्रताचरण का परिहार करता है। अर्थात् जो वचन सत्रूप दृष्टिगत होता है परन्तु परिणाम कटु आता हो उस सत्य वचन को भी नहीं बोलना चाहिए क्योंकि वह पर पीड़ा कारक धर्मध्वसंक है ।। ७ ।। LARASANURGRUNKCALUCARUCKLUCZURALACAUCASUNARI
धर्मानन्द श्रावकाचार-२१४