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MAHARANA
संभव है । तथापि पक्ष, चर्या और साधक पना इन तीनों से हिंसा का निवारण किया जाता है। इनसे सदा अहिंसा रूप परिणाम करना पक्ष है ।
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सागार धर्मामृत ग्रन्थानुसार गृहस्थ धर्म में जिनेन्द्र देव सम्बन्धी आज्ञा का श्रद्धान करता हुआ पाक्षिक श्रावक हिंसा को छोड़ने के लिये सबसे पहले मद्य, मांस, मधु और पांच उदम्बर फलों को छोड़ें ॥ १५ ॥ शक्ति को न छिपाने वाला ऐसा वह पाक्षिक श्रावक पाप के डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रह के त्याग का अभ्यास करे ।। १६ ॥ वह पाक्षिक श्रावक देवपूजा, गुरू पूजा, गुरू उपासना आदि कार्य को शक्ति के अनुसार नित्य करता है । मन्दिर में फुलवाड़ी आदि लगाने का कार्य तो करता है, रात्रिभोजन का त्यागी होता है परन्तु कदाचित् रात्रि को इलायची आदि ग्रहण कर लेता है । पर्व के दिनों में प्रोषधोपवासी भी शक्ति अनुसार करता है। व्रत खण्डित होने पर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है। आरंभादि में संकल्पी हिंसा नहीं करता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि को पाता हुआ प्रतिमाओं को ग्रहण कर आगे बढ़ता हुआ मुनि धर्म पर आरूढ़ होता है।
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इस प्रकार संक्षेप से यह जाने कि अष्ट मूलगुणधारी, स्थूल अणुव्रतों का शक्ति अनुसार पालन करना पाक्षिक श्रावक का लक्षण है। वह पाक्षिक श्रावक धीरे-धीरे चारित्र की वृद्धि करता हुआ नैष्ठिक पद को प्राप्त कर लेता है सदा आगे बढ़ने की भावना रखता है ॥ ३४ ॥
३४. पाक्षिकादिभिर्भिदा त्रेधा श्रावकास्तत्रपाक्षिकः, तद्धर्महृदयस्तन्निष्ठो नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ॥
अर्थ- श्रावक के तीन भेदों का वर्णन आगम में प्राप्त है। उनमें निज धर्म का पक्ष सुदृढ़ता से स्वीकार कर श्रद्धावान हो वह पाक्षिक श्रावक है। उस धर्म में निष्ठ हो साधनारत रहता है वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। इनका विशेष स्वरूप पहले लिखा जा चुका है || ३४ ||
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