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KAKKURAAGREHUASAYAGAEILZEALA
• प्रथम अणुव्रत का लक्षण
मन-वच - तन से नहीं करें, नहीं हिंसा करवाय ।
त्रस - वध अनुमोदे भी नहिं, अहिंसा अणुव्रत पाय ॥ ४ ॥
अर्थ मन-वचन तन से संकल्पपूर्वक त्रस जीवों का न तो स्वयं घात करना, न अन्य के द्वारा कराना और न प्राणीघात को देखकर आन्तरिक प्रशंसा द्वारा अनुमोदन करना यह गृहस्थ का व्यवहार से अहिंसाणुव्रत है । निश्चय दृष्टि से रागादि विकारों की उत्पत्ति हिंसा और उनका अप्रादुर्भाव अहिंसा कहलाती है।
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार कर स्वरूप इस प्रकार बतलाया है -
छेदन - बन्धन - पीड़न - मतिभारारोपणं व्यतीचाराः । आहारवारणापि च स्थूलवधाद् व्युपरतेः पञ्च ॥
अर्थ - छेदना, भेदना, बाँधना, पीड़ा देना तथा शक्ति से अधिक भार लाद देना और समय पर भोजन नहीं देना, भोजन में त्रुटि करना ये अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।
१. छेदन - भेदन कान, नासिका आदि शरीर के अवयवों को परहित की विरोधिनी दृष्टि से छेदना, भेदना ये छेदन-भेदन नामक अहिंसाणुव्रत का पहला अतिचार है।
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२. बन्धन- अभिमत, इष्ट देश - क्षेत्र में जाने से रोकना बन्धन है, अथवा रस्सी, जंजीर व अन्य किसी प्रतिबन्धक पदार्थ के द्वारा शरीर और वचन पर अनुचित रोक थाम लगाना बन्धन नामक अतिचार है।
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३. पीड़न दण्ड, चाबुक, बेंत आदि अनुचित अभिघात द्वारा शरीर को पीड़ा पहुँचाना तथा कटुक वचनों के द्वारा किसी का मन दुःखाना पीड़न नामक अतिचार है।
४. अतिभारारोपण - किसी भी मानव, नौकर-चाकर आदि व पशु पर
BARABARA
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धर्मानन्द श्राथकाचार २०४