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• पाक्षिक का कर्त्तव्य
दैनिक कर्म समूल गुण, अणुव्रत व्यसन हटाय ।
संकल्पी हिंसा तजे पाक्षिक, पदवी पाय ।। ३४ ।।
अर्थ- दैनिक षट् कर्म तथा मूलगुणों का पालक, अणुव्रत धारी, व्यसनों का त्यागी, विशेषतः संकल्पी हिंसा का त्यागी श्रावक पाक्षिक कहलाता है।
मैत्री प्रमोद कारूण्य और माध्यस्थ भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनियों का पक्ष है। (सा. ध. १ / १९) महापुराण ३/ २५-२६)
इस पक्ष के प्रति जो प्रयत्नशील है वह पाक्षिक श्रावक है। चारित्रसार ग्रन्थ के अनुसार
असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भ से गृहस्थों के हिंसा होना
पीड़ित हैं, उनके प्रति करुणा-दया, उपकार करने का भाव सतत् बना रहे, तथा जो उपकारी मेरे प्रति विपरीत आचरण करने वाले हैं, उनके प्रति माध्यस्थ भाव जाग्रत रहे और भी जैसा अन्यत्र कहा है
"दुर्जन क्रूर कुमार्ग रतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे ।
साम्य भाव रक्खूं मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ।
गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे |
बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावै ॥ आदि भावना रहे । २. आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
अर्थ- सत्पुरुषों का लक्षण है, जो हम दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हैं, उनके प्रति हम भी वैसा ही सौम्य, सुन्दर, दयामय, प्रीतिकर, सौजन्य भरा, भातृप्रेम सा व्यवहार करें। अपनी भावना के प्रतिकूल आचरण अन्य जनों के प्रति कदाऽपि नही करें। हम चाहते हैं हम सदा सुखी रहें, हमें कोई सताये नहीं - दुःख नहीं दे तो हम भी अन्य को क्यों सतायें । अतः अपने आत्म स्वरूप से प्रतिकूल किसी भी प्रकार नही करें। यही उत्तम भावना है ॥ ३३ ॥
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धर्मानन्द श्रावकाचार १९५