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XatakaBURADAKARAN saatatatatat ALASALASANA • चोरी में दोष -
जो कोई जिसका धन हरे, सो तिसप्राण हरेत । क्योंकि धनादिक वस्तु भी, प्राण स्खन के हेत ॥ ३१ ॥ भावार्थ - धन को बाह्य प्राण कहा गया है क्योकि धन में जीव की भारी प्रीति होती है। जो पर धन का हरण करता है वह उसके प्राण ही हरता है क्योंकि धन अपहरण के शोक से उसके प्राणों का भी वियोग संभवित है।
बिना दी हुई वस्तु का लेना चोरी है। इस कथन का अभिप्राय जिनागम में - सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ सातवें अध्याय में - इस प्रकार वर्णित है -
“यत्र संक्लेश परिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति । बाह्य वस्तुनो ग्रहणे च अग्रहणे च।
__ अर्थ - जो रखे हुए तथा गिरे हुए अथवा भूले हुए अथवा धरोहर रखे हुए परद्रव्यों को नहीं हरता है, न दूसरों को देता है सौ स्थूल चोरी से विरक्त कहा
...३. गृहणतोऽपि तृणं दन्तैः देहिनो मारयति ये, व्याघ्रभ्यस्ते दुराचाराविशिष्यन्ते कथं खलाः।
अर्थ - लोक में प्रसिद्ध है कि संग्राम भूमि शत्रु यदि अपनी दांत पंक्ति में तिनका दबा ले तो उसकी पराजय मान ली जाती है अब प्रतिपक्षी उसका पीछा नहीं करता न मारने की चेष्टा करता है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि वन में जिन भृगी आदि ने दातो में तृण दबायें हैं, उन्हें भी मारते हैं, क्या वे खेटक दुराचारी व्याघ्रों से कुछ कम हैं ? नहीं वे व्यान से भी अधिक पापी हैं। ___ यहाँ दयालु भगवन्त आचार्य परमेष्ठी शिकार व्यसन का निषेध करते हुए उससे जन्य हिंसा का दुष्पाप कथन कर भज्यों को शिकार त्यागने का सदुपदेश दे रहे हैं। शिकार महा पाप कर्म है, इसे सेवन करने वाला हत्यारी, महापापी, नरकगामी, सिंहचीता के समान क्रूर होता है। अतः सत्पुरुषों को इससे दूर रहना चाहिए ॥ ३०॥ WARINARANASANAUZERAT KEARERNÁNDAVASZRAEAAAA
धर्गानन्द श्रावकाचार-१९०