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दुःखी जीवों की हिंसा का निषेध -
बहुत दुःखी यह जीव कब, करे दुःख का अंत ।
यह विचार बुध करत क्या ? निज परिजन का अंत ॥ २२ ॥
अर्थ - बहुत दुःखी जीव को मार देने से उनके दुःख का अन्त हो जायेगा ऐसा विचार कर दुःखी जीवों को मारना भी धर्म नहीं है । उनके प्रति गुरूदेव प्रश्न करते हैं कि अपने परिजन पुरजनों को वे ऐसा सोचकर क्यों नहीं मारते ?
उनका यह विचार कि जितने दिन तक संसार में ये जीते रहेंगे उतने दिन तक दुःख झेलना पड़ेगा, अभी मार देने से दुःखों से छूट जायेंगे । इस प्रकार के विपरीत विचार रखने वाले वस्तु स्वरूप एवं कर्म सिद्धान्त से सर्वथा अपरिचित हैं । दुःख जीवों का उनके अपने ही दुष्कर्मों का फल है। जिन जीवों ने जैसे-जैसे खोटे कर्म किये हैं उन्हीं के अनुसार उनके अशुभ कर्मों का बंध हुआ, वे ही उदय में आकर उन्हें दुःख पहुँचाते हैं। जब तक कर्म उदय में आते रहेंगे तब तक वह दुःखी रहेगा, चाहे जीव वर्तमान पर्याय में हो या मरकर दूसरी पर्याय में चला जाय, कहीं भी हो कर्मों का फल उसे भोगना ही पड़ेगा ।
२१. बहुसत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरु पापम् ।
इत्यनुकंपां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥ ८४ ॥ पुरुषार्थ ॥
अर्थ- बहुत जीवों के घाती ये बिल्ली आदि हिंसक प्राणी जीते रहेंगे तो अधिक पाप उपार्जन करेंगे। इस प्रकार की दया करके हिंसक जीवों को नहीं मारना चाहिए ।
रक्षाभवति 'बहूना मेकस्यैवास्य जीवहरणेन
इति मत्त्वा कर्त्तव्यं न हिंसनं हिस्रसत्त्वानाम् ॥ ८३ ॥ पुरूषार्थ ॥
अर्थ - हिंसक एक जीव को मारने से उनसे मरने वाले बहुत से जीवों की रक्षा होती है ऐसा मानकर हिंसक जीवों की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥ २१ ॥
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धर्मानन्द श्रावकाचार १३८