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अर्थ - आरंभी हिंसा, उद्योगी हिंसा, विरोधी हिंसा- इन्हें यथा शक्ति गृहस्थ त्याग करें और संकल्पी हिंसा का सब प्रकार से त्याग करें ऐसा इस पद्य में बताया है। प्रत्येक का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए।
१. आरंभी हिंसा - भोजन आदि बनाने में, घर की सफाई आदि करने रूप घरेलू कार्यों में होने वाली हिंसा आरंभी हिंसा है।
२. उद्योगी हिंसा - अर्थ कमाने रूप व्यापार धन्धे में होने वाली हिंसा उद्योगी हिंसा है। व्यापार भी श्रावक के योग्य होना चाहिए चमड़े आदि का व्यापारी को उद्योगी हिंसा के साथ-२ संकल्पी हिंसा भी हिंसानन्दी रौद्र ध्यान होने से बनती है।
३. विरोधी हिंसा - अपनी, अपने आश्रितों की तथा अपने देश की रक्षा के लिये युद्ध आदि में की जाने वाली हिंसा विरोधी हिंसा है। गृहस्थ जीवन में इनका सर्वथा त्याग असंभव है। वह बिना प्रयोजन तो इन्हें भी नहीं करता है। क्योंकि इन्हें छोड़ने की ओर उसकी रूचि दौड़ती है।
४. संकल्पी हिंसा - संकल्प पूर्वक किसी जीव को पीड़ा पहुँचाना संकल्पी हिंसा है ॥१९॥
१९. व्यापार्जाियतेहिंसा यद्यप्यस्य तथाप्यहो।
हिंसादिकल्पनऽभावः पक्षत्वमिदमीरितं ।। अर्थ - यद्यपि व्यापारादि उद्योग में भी हिंसा होती है पर मैं इन्हें मारू न ऐसा भाव होता है और न जानबूझकर जीव घात में प्रवृत्ति होती है।
अतः श्रावक के लिए उद्गम्बरादि फलों की तरह व्यापारादि में हिंसा का महादोष नहीं होता है। ऐसा आगम में कथन है ।। १९ ॥ KANKSasurasRecraERERSasasursasarasREASREGalsmanasa
धर्मानण्ज श्रापकाचार-१७४