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86828 AGABARISAN NAKARANANLABASASUTARAKA VAROK • बिना छने पानी में हिंसा -
जल में सूक्ष्म दृष्टि से, दीखत जीव अपार । बिन छाने त्रस जीव बहु, मरते विपुल मझार ।। २१॥ भावार्थ - जल में सूक्ष्म दृष्टि से असंख्य ऐसे जीव हैं जो चक्षु इन्द्रिय गोचर नहीं होते पुन: छने जल में भी अन्तमुहूंत बाद पुन: जीव पैदा हो जाते हैं अतः छने अनछने दोनों को जिन वचन अनुसार प्रासुक करना चाहिए। बिना छने में त्रस जीव भी रहते हैं और उनके सेवन से उनका घात नियम से होता ही को हिंस्य कहते हैं। सारा जगत दूसरे जीवो को हिंस्य समझता है वह सही नहीं।
वास्तव में हिंस्य तो मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र है इन्हें कृश करना, हीन करना हेय नहीं, पुरूषार्थ पूर्वक इनका विघात करना चाहिए।
व्यवहार नय से जिसके द्रव्य प्राणों के विघात के प्रति प्रयोग विशेष होते हैं वह हिंस्य है। पर वह निश्चय नय से तात्विक नहीं।
हिंसक - प्रमत्तयोग को धारण करने वाले को हिंसक कहते हैं।
हिंसा - मारने की क्रिया को हिंसा कहते हैं। पर जिनशासन में इस पक्ष को गौण रखा गया है उसके अनुसार प्रमत्त योग को हिंसा कहते हैं। प्रमाद रहित मुनि से यदि द्रव्यहिंसा हो भी गई तो प्रमत्तयोग रहित उनके हिंसा जन्य आसन्न नहीं होता है।
हिंसाफल - हिंसा का फल आसव और बंध पूर्वक संसार उत्पत्ति है।
नित्यं अवगूहमानैः - इस शब्द का अर्थ है कि जिन्हें वास्तव में संवर मार्ग चाहिए उन्हें पूर्वोक्त विषय को समझते हुए उसी विधि का अनुसरण करना चाहिए। और भी - हिंस्या प्राणाः द्रव्यभावाः, प्रपत्तो हिंसको मतः।
प्राणविच्छेदनं हिंसा, तत्फलं पाप संग्रहः ।। अर्थ - द्रव्यप्राण और भावप्राण हिंसा के विषय होने से हिंस्य हैं । प्रमाद सहित वर्तन करने वाला हिंसक है। प्राणों का उच्छेद होना हिंसा है और पाप का संचय उस हिंसा का फल है।। २० ॥ XANANANAS CUATRAKARANASASAAPARAAN
धर्मानन्द श्रावकाचार-~१७७