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• जुआ से हानि -
जुवारी ढिग अन्याय का, आवे नित ही द्रव्य। धर्म हेतु खरचे नहीं, व्यये व्यसन में सर्व ॥२६॥
अर्थ - जुआ खेलने वाले के पास नित्य अन्याय का पैसा संचित होता है। उस संचित द्रव्य का भी वह पुन: दुरूपयोग करता है, व्यसन सेवन में ही खर्च करता है, धर्म कार्यों में थोड़ा भी धन नहीं देता है।
जुआ किसे कहते हैं ? इस विषय में लाठी संहिता ग्रन्थ में आचार्य लिखते हैं - जिस क्रिया में खेलने के पासे डालकर धन की हार जीत होती है वह सब जुआ कहलाता है अर्थात् हार जीत की शर्त लगाकर ताश खेलना, चौपड़ खेलना, शतरंज खेलना आदि सब जुआ कहलाता है । और भी - अपने-२ व्यापार कार्यों के अतिरिक्त, कोई भी दो पुरूष परस्पर एक दूसरे की ईना के किसी भी कार्य में एक दूसरे को जीतम चाना है तो उन दोनों के द्वारा उस कार्य का करना भी जुआ खेलने का अतिचार कहलाता है।
सागार धर्मामृत ग्रन्थ के अनुसार - जुआ के त्याग करने वाले श्रावक का मनोविनोद हेतु, विनोद की उत्पत्ति का कारण, शर्त लगाकर दौड़ना, जुआ देखना आदि भी जुआ के अतिचार हैं। __ जुआ खेलने से पाप के कारण यह जीव छेदन, भदन, कर्त्तन आदि के अनन्त दुःखों को पाता है। जुआ खेलने से अन्धा हुआ वह व्यक्ति इष्ट जनों का समादर नहीं करता है वह न तो गुरू को, न माता को न पिता को मानता है स्वच्छन्द हो पापमयी प्रवृत्ति करता है अन्ततः दुर्गति का पात्र बनता है ।। २६ ।।
२६. भुवनमिदम कीर्तेश्चौर्यवेश्यादि सर्व व्यसनपतिरशेषदोषनिधिः पाप बीजं । विषमनरक मार्गेष्वग्रयायोति मत्वाक इह विशदबुद्धि तमंगौकरोति ।।
अर्थ - जुआ खेलने से इस लोक में अपकीर्ति होती है। चोरी, वेश्यासेवन 14628ABARABARAraratata RATA ZRAKA KAUAARINA
धर्मानन्द श्रावकाचार -८१८५