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ZASAVALUASANAVARA UTARATI ARANASAHARU
अर्थ - संसार में जीवों के जो कुछ दुःख शोक वा भय का बीज रूप कर्म है तथा दौर्भाग्य आदि हैं, वे समस्त एक मात्र हिंसा से उत्पन्न हुए जानो। हिंसक के तप आदि सब निरर्थक हैं
“निः स्पृहत्वं महत्त्वं च नैराश्यं दुष्करं तपः ।
कायक्लेशश्च दानं च हिंसकानामपार्थकम् ।। अर्थ - जो हिंसक पुरूष हैं उनकी निस्पृहता, महत्ता, आशा रहितता, । दुश्कर तप करना काय क्लेश और दान करना आदि समस्त धर्मकार्य व्यर्थ हैं। अर्थात् निष्फल है।
इस प्रकार आगम से सांगोपाङ्ग हिंसा का स्वरूप जानकर उनका त्याग करना चाहिए ॥२०॥
२०. (अ) हिंसादि संभवं पापं प्रायश्चित्तेन शोधयन् ।
तपो विना न पापस्य मुक्तिश्चेति विनिश्चयन् ।। अर्थ - हिंसादि पाप कार्यों से उत्पन्न पाप का प्रायश्चित्त लेकर शोधन करना चाहिए। तप के बिना पाप से मुक्ति मिलती नहीं यह सुनिश्चित सत्य है। और भी - गृहवाससेक्नरतो मंद कषायः प्रवर्तितारम्भाः।
आरंभबां तां हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियतं ॥ अर्थ - जो गृह त्यागी नहीं है मंदकषायी है, आरंभ और उद्योग जो प्रवर्तित भी है वह आरंभजन्य हिंसा से अपने को पृथक नहीं कर पाता है यह नियत-अर्थात् सुनिश्चित बात है। (ब) अक्बुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन।
नित्यमवगूहमानैःनिजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥ पुरूषार्थ. ६० ।। अर्थ - संवर मार्ग में नित्य उद्यमवान् पुरूषों द्वारा वास्तविक पने से हिंस्य, हिंसक और हिंसा फल को जानकर अपनी शक्ति के अनुसार हिंसा छोड़नी चाहिए।
हिंस्य - जिसकी हिंसा की जाय उसको हिंस्य कहते हैं अर्थात् मारे जाने वाले sasunEReasoksaRANASIANSINGuesasaeededasesasrenesia
धमानन्द श्रावकाचार १७६