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AIZKARAMAN KARATAS E RATAREZCANT होने के बाद श्रावक को पूजा अभिषेकादि सभी क्रियाओं को सपत्नीक करना चाहिए ऐसा जिनागम में उल्लेख है अतः पत्नी सहित वह श्रावक ३+३ =६ तार का जनेऊ धारण करता है।
अरहंत की प्रतिमा भी संस्कार विधि के बाद पूज्य बनती है उससे पूर्व नहीं। इसी प्रकार मनुष्य जीवन को सुसंस्कृत करने के लिये १६ संस्कार आचार्यों ने बताये हैं उनका विशेष उल्लेख उत्तर पुराण एवं महापुराण में देखें । उन संस्कारों में -
यज्ञोपवीत संस्कार महत्वपूर्ण है जिसके अधिकारी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं।
माता के गर्भ से प्रगट होना मनुष्य का पहला जन्म है और सद्गुणों में प्रविष्ट होने के लिये यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार होना मनुष्य का दूसरा गुणमय जन्म माना गया है। इन दो जन्मों के कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को द्विज (दो जन्म वाला) कहा जाता है।
चूंकि संस्कार के बिना व्यक्ति पूज्य नहीं हो सकता है इसलिये तीन वर्ण वालों को जनेऊ संस्कार अवश्य कराना चाहिए।
यज्ञोपवीत यह शब्द - यज्ञ और उपवीत इन दो शब्दों से मिलकर बना है। यज्ञ शब्द का अर्थ है हवन, दान, देवपूजा आदि। उपवीत का अर्थ है ब्रह्मसूत्र। "उपवीतः ब्रह्मसूत्रः" अमर कोष में भी ऐसा ही उल्लेख है -
“यज्ञे दान देवपूजा कर्मणि धृतं उपवीतं ब्रह्मसूत्र यज्ञोपवीतं इति ।
व्याकरण की उक्त व्युत्पत्ति से भी यही अर्थ स्पष्ट होता है। अत: दान, देवपूजा आदि करने के पूर्व श्रावक को यज्ञोपवीत अवश्य धारण करना चाहिए।
यज्ञोपवीत को तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने भी गृहस्थावस्था में धारण किया था अतः उसका महत्व है। यज्ञोपवीत से हिरणिया आदि रोगों का भी NAVACANAN KANANA RASAKATAKARARAAVANZATA 282
धमजिद श्रावकःचार--१८२