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ऐसी अवस्था में उन्हें दुःख से छुड़ाने के लिये मार डालने की बात व्यर्थ है। मारने पर तो उसे उस समय और अधिक पीड़ा होगी और तीव्र आर्त ध्यान से मरकर दुर्गति में जायेगा । और भी मारने वाला महान् पाप का बंधकर स्वयं भी दुःख का भाजन बनेगा || २२ ||
• सुखी जीवों की हिंसा का निषेध
सुखित हने मरि पायेंगे, परभव में भी सुख ।
इस कुतर्क तलवार को, गहत न साधु कदापि ॥ २३ ॥
अर्थ- जो सुखी हैं उनको मार दिया जाय तो वे परभव में भी सुखी होंगे ऐसा कुतर्क कर साधु पुरूष कभी भी सुखी को मारने का दुष्प्रयास नहीं करते हैं।
तलवार का प्रहार जिस पर होता है वह जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है इसी प्रकार पूर्वोक्त प्रकार के कुतर्क रूपा तलवारों से भी जीव निज आत्म धर्म का विघात कर दुर्गति को प्राप्त करता है।
भावार्थ - हम कुतर्कों से सावधान रहें इसके लिये आचार्य कहते हैं साधु के विचारों में साधुता होनी चाहिए। यथार्थता तो यह है कि सुख-दुःख का मिलना शुभाशुभ कर्मों के अधीन है वह जीने या मरने से नहीं बनता । यह बात मिथ्या है कि सुखी जीव सुखी अवस्था में मरकर परभव में भी सुखी रहेगा। जब बिना आयु पूर्ण हुए मध्य में उसे हठात् मारा जायेगा तो वज्र पात के समान भारी कष्ट होगा और आर्त रौद्र ध्यान से मरण कर वह नरक तिर्यञ्च पर्याय में भी जा सकता है फिर आप ही बताओ कि वहाँ अपेक्षाकृत अधिक सुख होगा या अधिक दुःख होगा ? कुतर्क पूर्वक जीवघात करने वाला भी महानू हिंसक है स्वयं भी वह दीर्घकाल तक पापोदय से दुःखी रहता है ॥ २३ ॥
२३. कृच्छ्रेण सुखावाप्तिर्भवति सुखिनो हताः सुखिन एव ।
इति तर्कमण्डलाग्रः सुखीनां घाताय नादेयः ।। ८६ ।। पुरुषार्थ ।
भावार्थ- कोई-कोई ऐसा कुतर्क करते हैं कि जो यहाँ दुःखी अवस्था में मरता..
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धर्मानन्द श्रावकाचार १३९