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JASTREASURESHERERSATAmasmekamexercasesasasaxsasSAREER मारकर माँस खाना पाप है पर स्वयं मरे हुये के मांस खाने में कोई पाप नहीं है। उसका खण्डन करते हुए आचार्य ने मूल पद्य में कहा है कि जीव घात के बिना मांस पर्याय होती नहीं। स्वयं मरे हुए पशु आदि के माँस में भी निरन्तर उत्पन्न हुए निगोदिया जीवों की हिंसा होता ही हैं । लब्ध्वपर्यापाक पंचेन्द्रिय जीव भी उस मांस पिंड में रहते हैं। कच्ची, पकी हुई तथा पकती हुई भी माँस की डलियों में उसी जाति के निगोदिया जीवों का निरन्तर ही उत्पाद होता रहता है । अतः हर प्रकार से माँस का आहार दोष युक्त है ।। १२ ।।
१२. (क) न विना प्राणिविधातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् ।
माँसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा । पुरूषार्थ. ६५ ॥ अर्थ - क्योंकि प्राणी धात के बिना मांस की उत्पत्ति नहीं होती इसलिये मांस को खाने वाले के हिंसा भी अनिवार्य रूप से होती है। (ख) नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्य तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।। अर्थ - कभी भी प्राणिपात के बिना मांसोत्पत्ति न होने से तथा प्राणिवध स्वर्ग का कारण न होने से मांस सेवन का अवश्य त्याग करना चाहिए। (ग) न मांस भक्षणे दोषो न मद्येन न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषाभूतानां, निवृत्तिस्तुमहाफला ॥ अर्थ - समांस भक्षण में दोष है, न मद्य सेवन में, न मैथुन सेवन में इस प्रकार की प्रवृत्ति अज्ञानी मूढ़ पापी जनों की होती है। उनसे छूटना अर्थात उनका त्याग करना महाफला - महान् स्वर्ग मोक्षादि फल को देने वाला बनता है ऐसा जानना चाहिए।
(अ) यदपि किलभवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ॥ ६६ ।। पुरूषार्थ. 1
अर्थ - स्वयमेव मरे हुए भैस वृषभ आदि से उत्पन्न हुआ जो मांस है उसके भक्षण में भी हिंसा है क्योंकि उनके आश्रय से रहने वाले असंख्य निगोदिया जीवों के मारने का पाप तो निवरित नहीं हुआ।... ANASASARANDA SASSİNAN KUASA WALATASARASAKAN
धर्मानन्द श्रावकाचार१६७