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vasanasursxsxesaTRTREATMEResisasuresasaccinaaasReunder • देव पूजा
वीतराग सर्वज्ञ को पूजे नित चित लाय। जल फलादि वसु द्रव्य से, पूजत पाप नशाय ॥३॥
अर्थ - जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं ऐसे देव ही सच्चे देव हैं उनकी भावपूर्वक जो अष्ट द्रव्य से पूजा करता है उसके पापों का नाश होता है अर्थात् पाप रूप प्रकृतियों में जो अनन्तानुबंधी आदि दुःखोत्पादक प्रकृतियाँ हैं उनको वह जिन भक्ति से उखाड़ फेंकता है। जिन भक्ति को सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाह्य निमित्त कहा भी है, निकाचित और निधत्ति रूप दृढ़ कर्म भी जिनभक्ति से नष्ट हो जाते हैं, अतः षट्कर्मों में जिन पूजा को पश्चिम स्थान प्राप्त है। श्राक्कों को प्रतिदिन जिन पूजा करने के लिये संकेत इस पद्य में किया है।
जो क्षुधा तृषा आदि १८ दोषों से रहित हैं वे ही वीतरागी हैं जो वीतरागी
२. देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः 1
दानश्चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने । अर्थ - देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थों के षट् कर्म प्रतिदिन करने योग्य हैं।
प्रातरूत्थाय कर्त्तव्यं देवता गुरू दर्शनं । भक्त्या तद् वंदना कार्य धर्मश्रुतिरूपासकैः । पश्चादन्यानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो बुधैः॥ ___ अर्थ - प्रातःकाल उठकर सर्वप्रथम देव दर्शन और गुरू हों तो गुरू का दर्शन करना चाहिये। जिनधर्म के उपासकों एवं शास्त्र-जिनागम के उपासकों द्वारा भक्ति पूर्वक उनकी भी वन्दना करनी चाहिए तदनन्तर अन्य कार्यों में लगना चाहिए यही बुधजनों के लिये करने योग्य श्रेष्ठ कर्त्तव्य हैं।
"धर्मार्थकाम मोक्षाणां आदौ धर्मः प्रकीर्तितः।"
अर्थ - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरूषार्थ हैं उनमें धर्म मुख्य पुरूषार्थ हैं। अतः उसे सबसे पहले कहा है।॥ २॥ MzermalineszaRIMEcomasasanaeRSasasasamastSANKRASA
धर्मानन्द श्रावकाचार-१४८