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*ARANATUKSEKARANG AKASZUARA AVARUNARARAMALACANA
जैसा कि दर्शन पाहुड़ में बताया है - “जिणवयणमोसहमिणं विसयसुह विरेयणं अमिदभूयं । जरमरण वाहि हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।।" यह जिन वचन रूप औषधि इन्द्रिय विषय सेवन से उत्पन्न सुख से जीव को विरक्त करता है और जन्म मरण रूपी रोग को दूर करने के लिये अमृत के समान है सर्व दुःखों का क्षय करने में कारण है।
इस प्रकार स्वाध्याय की महिमा को समझकर गृहस्थ को दान पूजा की तरह स्वाध्याय भी प्रतिदिन करना चाहिए ।। ५ ॥
५. हिंसादिवादकत्वेन न वेदो धर्म कांक्षिभिः ।
वृकोपदेशवन्नूनं न प्रमाणी क्रियते बुधैः ।। अर्थ - हिंसा का पोषक वेद, धर्माकाक्षी विद्वानों द्वारा उसी प्रकार प्रामाणिक मान्य नहीं है जैसे प्रतिदिन झूठ बोलने वाला गड़रिये का वचन ।
'भालू आया मुझे बचाओ-२' ऐसा मजाक में प्रतिदिन चिल्लाने वाले गड़रिये के वचन को प्रमाणीभूत नहीं माना गया । और एक दिन सचमुच भालू आया वह चिल्लाता रहा पर उसे झूठा समझकर कोई भी उसे बचाने नहीं आया।
स्वाध्यायात् ज्ञानवृद्धिः स्यात् तस्यां वैराग्यमुल्वणं । तस्मात् संगपरित्यागस्ततश्चित्त निरोधनम् ।। अर्थ - स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि होती है। ज्ञान वर्धन होने पर वैराग्य सुदृढ़ होता है। वैराग्य से परिग्रह त्याग और परिग्रह त्याग से चित्त का निरोध होता है। और भी - तस्मिन् ध्यानं प्रजायेत ततश्चात्मप्रकाशनं ।
तत्र कर्म क्षयावश्यं स एव परमं पदं । अर्थ - जिसने चित्त का निरोध किया है उसमें ध्यान की सिद्धि होती है और ध्यान से निज आत्मा की अनुभूति होती है। स्वानुभव से अनिवार्य कर्म का क्षय होता है कर्म क्षय से परम पद-सिद्ध अवस्था की प्राप्ति होती है।। ५॥ RRERNARRERASIERSITERTREATURIERSRARERESASARAMMERISARSaex
धर्मानन्द श्रावकाचार -~१५५