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उदाहरण - कहीं बाजार में एक व्यक्ति किसी दूसरे को मार रहा है और दस खड़े-२ तमाशा देख रहे हैं तथा देख-देख कर खुश भी हो रहे हैं तो मारने वाला एक है पर सभी देखने वाले भी भावों की क्रूरता के कारण पाप बन्ध के भागी होते हैं॥९-१३॥ . ९. जियदु व मरदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
एयदस्स पत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ।। मूलाचार ॥ अर्थ - जहाँ अयत्नाचार रूप प्रवृत्ति है वहाँ जीव मरे या न मरे, हिंसा निश्चय से होती ही है पर जहाँ प्रयत्नपूर्वक-समिति पूर्वक प्रवृत्ति मौजूद है वहाँ द्रव्यहिंसा यदि हो भी जाय तो द्रव्यहिंसा मात्र बन्ध का कारण नहीं होता है। १०. एकस्थाल्पा हिंसा ददाति काल फलभनल्पम् ।
अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥५२॥ पुरुषा. ॥ अर्थ - एक ही अल्प हिंसा भी फल काल में बहुत फल देती है -
यथा (क)- एक व्यक्ति ने किसी को जान से मारने के लिए शस्त्र फेंका किन्तु दैववश वह शस्त्र उसके पूर्ण रूप से न लगकर जरा सा लगा - माना उसकी उँगली कट गई तो द्रव्य हिंसा यहाँ अल्य हुई किन्तु मारने वाले के परिणाम में तीव्र कषायभाव होने से बन्ध तीव्र ही होता है और फल भी विपुल पापमय होता है।
(ख) अन्य की महाहिंसा - बहुत बड़ी द्रव्य हिंसा फलकाल में बहुत थोड़ा फल देती है। किसी गाड़ीवान् ने बैल को न चलने पर कोड़ा मारा पर दैववश वह कोड़ा उसके किसी ऐसे मर्म स्थान पर लगा जो बैल मर ही गया। यहाँ द्रव्यहिंसा तो महान् हुई पर भाव हिंसा में वैसी तीव्र क्रूरता न होने से बंध अल्प ही होगा - महान् नहीं। ११. एकस्य सैव तीवं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य ।
व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥५३॥ पुरुषा.॥ अर्थ - एक साथ मिलकर की गई भी द्रव्य हिंसा फलकाल में विचित्रता को प्राप्त होती है। एक को तीव्र फल दूसरे को वही कार्य मन्द फल देता है।
उदाहरण - किसी व्यक्ति को दो आदमी मिलकर पीटने लगे। एक के ... *** ALASALASANATANKUA ANAKARARAANIURA
धर्मानन्द श्रावकाचार--१२८