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KANAKANAN
• नैमित्तिक हिंसा का निषेध
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अतिथि जनों के हेतु नहीं, जीवघात में दोष । क्या यह अहिंसा धर्म है, लखोदया के कोष ॥
१८ ॥
अर्थ - अतिथि आदि पूज्य पुरूषों के सत्कार के लिए जीव घात में दोष नहीं उनका खण्डन करते हुए आचार्य कहते हैं कि अहिंसा लक्षण धर्म में दया धर्म मय शब्द कोष में उक्त प्रकार की विपरीत मान्यता का प्रवेश ही असंभव है।
भावार्थ - यहाँ मुस्लिम या सिक्ख आदि धर्म की विपरीत मान्यता की ओर संकेत किया है। कोई कहे कि जब मुहम्मद आदि बड़े पुरूष अपने घर आते हैं तब उनके सत्कार के लिए बकरे के मांस का भोजन देना हिंसा नहीं धर्म है, उसके प्रति करुणाधारी आचार्य देव कहते हैं कि वह अतिथि सत्कार नहीं, हिंसा है. पाप है। ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए ॥ १८ ॥
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. कहते हैं - तुम्हारा कथन सही नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष से विरोध आता है । यदि केवल मन्त्र बल से ही यज्ञ वेदी पर पशुओं का घात देखा जाता तो यहाँ मन्त्र बल पर विश्वास संभावित था पर वह बंध तो रस्सी आदि बाँधकर करते हुए देखा जाता है इसलिये प्रत्यक्ष में विरोध होने के कारण मन्त्र सामर्थ्य की कल्पना उचित नहीं है। अतः मन्त्रों से पशु वध करने वाले भी हिंसा दोष से निवृत्त नहीं हो सकते हैं। नियतपरिणामः निमित्तस्यान्यथाविधिनिषेधासंभवात् -
अर्थ- शुभ परिणामों से पुण्य और अशुभ परिणामों से पाप बन्ध नियत है । उसमें हेरफेर नहीं हो सकता है।
१८. पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति ।
इति संप्रधार्यं कार्यं नातिथये सत्त्वसंज्ञपनम् ॥ ८१ ॥ पुरुषार्थ ॥ अर्थ- पूज्य पुरूष के लिए बकरादि जीवों का घात करने में दोष नहीं है ऐसा विचारकर अतिथि के लिये जीव का घात नहीं करना चाहिए। यहाँ मुस्लिम आदि धर्म
के प्रति संकेत है ।। १८
SASABAYANACARABACARANAGARAGASACANZEAKAASUARAGAVAST धर्मानन्द श्रावकाचार १३४
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