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BASERESTMARERESTERNMEREMONTERMINSasanaSamSasasa • रत्नत्रय का माहात्म्य--
मुहूर्त एक समकित रतन, पाकर यदि हो त्याग।
बहु भ्रमि माति भी, पाना मुशि प्राय ।।४।। अर्थ - जिस प्रकार पुष्पकली खिलते ही चारों और सुरभि बिखर जाती है,रवि के उदय के साथ ही तिमिर छिप जाता है, प्रकाश प्रसारित हो जाता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन की किरण चमकते ही अनादि से घिरी मिथ्यात्व की घटायें तितर-बितर हो जाती हैं, आत्मीय ज्ञान ज्योति झिलमिला उठती है, चारित्र की फुलवाड़ी प्रकट दृष्टिगत हो जाती है। रत्नत्रय महिमा अवर्णीय और अतुल है। क्योंकि वह अमूर्तिक स्वरूप प्रदान करता है, जिसका वर्णन मूर्तिक शब्दों की क्षमता हो ही किस प्रकार संभव है ?
इस रहस्य का स्पष्टी करण करने को यहाँ प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव के पौत्र मरीचि कुमार का उदाहरण दिया है। उसके जीवन की कथा कितनी लम्बी थी, तथाऽपि पशुपर्याय में ही उत्तम देशना लब्धि प्राप्तकर सम्यक्त्व रत्न पाया और क्रमश: परम पुरूषार्थ के बल पर तीर्थंकर गोत्र प्रकृति का बंध किया नन्द राजा की पर्याय में और स्वर्ग सम्पदा भोगकर तीर्थंकर हो भुक्ति के साथ अर्थात् परम वैभव को त्याग मुक्ति रमा के कन्त हो गये भव-भव के संचित पाप रत्नत्रय की प्राप्ति होने पर क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। सम्पूर्ण कर्म ही लय हो जाते हैं। यहाँ तक कि अनादि मिथ्यादृष्टि भी अन्तर्मुहूर्त मात्र समय में कैवल्य पा शिवसुख प्राप्त कर लेता है ॥४॥ ४. मुहूर्तेन येन सम्यक्त्वं संप्राप्त पुनरूझितं ।
भ्रान्त्वापि दीर्घकालेन स सेत्स्यति मरीचिवत् ॥ अर्थ - एक मुहूर्त के लिये ही जिसे सम्यक्त्व प्राप्त हुआ और फिर छूट गया वह दीर्घकाल पर्यन्त संसार में भ्रमण करके मरीचिकुमार के समान सिद्धि को तो प्राप्त होगा ही। सम्यक्त्व की महिमा को बताते हुए यह श्लोक है।॥ ४॥ GAINEACRHAUSEN NANASAAN KARNATAKA
धनिषद प्रावकाचार८१