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SASARANAREREZESALUES
• अहिंसा वर्ज प्रकाशक विधि-
ZNAKAKALACA
अहिंसा धर्म प्रसिद्धि हित, श्रावक मुनि व्रत सार । परकाशे महावीर प्रभु, जग जीवन हितकार ॥ ३६ ॥
अर्थ - अहिंसा धर्म की प्रसिद्धि तो स्वाभाविक है। संसार का प्राणीमात्र जीवन चाहता है, जीना चाहता है, कोई मरण का इच्छुक नहीं है। अतएव • स्वयं सिद्ध है कि अपनी-अपनी आत्मा का रक्षण सभी चाहते हैं। आत्म रक्षण ही तो अहिंसा है। रही बात पर जीव रक्षण की । प्रकृति से तो सभी रक्षक हैं, अज्ञान व स्वार्थवश मिथ्या बुद्धि से जीव एक दूसरे का घातकर महा पाप बंध कर स्वयं दुर्गति का पात्र बनता है ।
जन्मजात स्वभाव का रक्षण करने वाला ज्ञानी, बुद्धिमान समझता है कि मेरे ही समान अन्य प्राणी को भी जीवन रक्षण का अधिकार है। किसी को अधिकार च्युत करना पाप है, अन्याय है, अत्याचार है। प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव रखना, उन्हें अभयदान देना चाहिए। विचार करें कि हमने किसी को जीवन - चेतना दी है क्या ? नहीं दी और न कोई किसी को दे सकता है, फिर भला हमें उसे लेने का भी क्या अधिकार है ? कोई अधिकार नहीं है।
भगवान महावीर ने अहिंसाधर्म प्रचार-प्रसार के लिए हिंसा की बड़ी सूक्ष्म और स्पष्ट व्याख्या करते हुए उसे द्रव्यहिंसा और भावहिंसा के भेद से दो भागों में विभाजित क्रिया है । द्रव्यहिंसा तो प्रत्यक्ष है किसी का प्राण घात करना हत्या करना है | किन्तु अपने आत्म स्वभाव के विरुद्ध विचार करना सोचना भाव हिंसा है। किसी भी प्राणी अपाय, कष्ट दान पीड़ा प्रदान का विचार मात्र हिंसा है । यथा किसी व्यक्ति ने अन्य व्यक्ति का घात कत्ल करने का विचार किया, अवसर खोजता रहा, परन्तु उसे अवसर नहीं, वह मार नहीं सका तथाऽपि हिंसा का भागी हो गया। अतएव श्रावक धर्म का पालन करने
CASASAKALACACACAGASAKANANGSÚLÉLAGASALACASASAUZELGA धर्मानन्द श्रावकात्तार ११०