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• इसका दृष्टान्त
जैसे डॉक्टर हाथ से रोगी मरे नहि दोष। कसाई से कोई न मरे, तब भी लगे अघ कोष ।। ८॥
अर्थ - जैसा पूर्व दोह में बताया उसकी पुष्टि हेतु यहाँ दृष्टान्त दिया है कि रोगी की मृत्यु डॉक्टर के हाथ से हुई तो भी वह दोषी नहीं और कसाई प्रयास करने पर भी अभीष्ट व्यक्ति को नहीं मार सका तो भी हिंसा जन्य पाप बन्ध वह करता ही है।। ८॥ • कार्य का दिग्दर्शन - कुछ भी हिंसा नहि किये तो भी पाप बंधेय । हिंसा करि भी द्वितीय पुनि, हिंसा फल न लहेय ॥९॥ कम हिंसा भी एक को, फले काल अधिकाय । दूजे को अधिकाय भी, हिंसा कम फल दाय ॥१०॥ मिलकर हिंसा की गई, फल विचित्र दे सोय। किसी को तो अधिकी फलें, किसी को कम फल होय ॥११॥
...अर्थ - समिति पूर्वक आचरण करने वाले सत् पुरूष (मुनि के) रागादि भावों की उत्पत्ति बिना केवल द्रव्य प्राणों के वियोग से ही हिंसारंचमात्र भी नहीं होती है।।७।। ८. अविधायापि हि हिंसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः ।
कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ।। ५१ पुरुषा. ॥ अर्थ - वास्तव में कोई एक द्रव्य हिंसा को न करके भी (भाव हिंसा की मौजूदगी से) हिंसाफल को भोगने का पात्र होता है और दूसरा कोई (भाव हिंसा के असद्भाव से) द्रव्य हिंसा को करके भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र नहीं होता है। इस संदर्भ में पहले विवेचन कर चुके हैं।॥ ८॥ RMEResisasRAREREAugueseaseDEARSATRNAKERESENSITINA
धर्मानन्द प्रावकाचार-१२५