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कोई हिंसा पहले फले, करते कोई फलाय । कोई तो पीछे फले, लखूँ विचित्र फल भाय ॥ १२ ॥ हिंसा तो एक ही करे, फल भोगत हैं अनेक | मिलि के बहु हिंसा करे, फल भोगत कोई एक ॥ १३ ॥ उपर्युक्त पक्तियों में हिंसा अहिंसा के प्रति अनेकान्त दृष्टि से यह बताया गया है कि हिंसा अहिंसा का संबंध जीव के परिणामों से मात्र, बाह्य द्रव्य हिंसा न पाप बंध की कारण है न पुण्य बंध की । द्रव्य हिंसा भाव हिंसा के सद्भाव में ही पाप बन्ध का कारण बनती है अन्यथा नहीं ।
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अर्थ - प्रथम दोहे में यह बताया है कि कोई एक व्यक्ति (भाव हिंसा के सद्भाव के कारण) द्रव्य हिंसा को नहीं करके भी हिंसा का फल भोगता है दूसरा कोई ( भाव हिंसा के असद्भाव के कारण ) द्रव्य हिंसा को करके भी हिंसा के फल को नहीं भोगता अर्थात् एक हिंसा न करके भी फल पाता है दूसरा हिंसा करके भी फल नहीं पाता है ।। ९ ।।
द्वितीय दोहे में बताया है कि किसी एक जीव को थोड़ी भी द्रव्य हिंसा फल काल में बहुत फल देती है और किसी दूसरे जीव को बहुत बड़ी द्रव्य हिंसा भी फलकाल में बिल्कुल थोड़ा फल देने वाली होती है ॥ १० ॥
इसे उदाहरण से इस प्रकार समझें किसी दुर्जन ने किसी को जान से मारने के लिये शस्त्र फेंका किन्तु दैव वश वह शस्त्र उसके पूर्ण रूप से न लगकर जरा सा लगा और उसकी मानों एक उंगली कट गई तो यहाँ पर द्रव्यहिंसा तो थोड़ी ही है पर तीव्र कषाय का सद्भाव होने से कर्म बन्ध और उसका फल महान् होगा ।
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विपक्ष में भी इसी प्रकार जानना उदाहरण - किसी गाड़ी चलाने वाले ने घोड़ा, बैल आदि अपने किसी पशु को तेज चले इस अभिप्राय को
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धर्मानन्द श्रत्यकाचार १२६
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