________________
sasaramSURGESHERMAERENagarisuTUNRELESAEREKECERERRRER • अन्वय व्यतिरेक कथन
कषाय के सद्भाव से, बध न होत भी पाप। वध होत भी अघ नहीं, रहे निष्कषाय यदि आप ॥७॥
अर्थ - द्रव्य हिंसा के न होने पर भी कषाय के सदभाव से भाव हिंसा मौजूद है अतः पाप बन्ध होता रहता है। दूसरी ओर द्रव्यहिंसा के होते हुए भी कषाय भाव के न होने से हिंसा भी नहीं तथा उसके पाप बन्ध भी नहीं होता है। उदाहरण - डाकू ने बन्दूक चलाई मकान मालिक को मारने के लिए पर पुण्योदय से सातावेदनीय का उदय होने से वह उसका लक्ष्य चूक जाने से बच गया तथा रंच मात्र भी कष्ट को प्राप्त नहीं हुआ। यहाँ द्रव्य हिंसा को न करके भी डाकू हिंसा का भागी बनता ही है। दूसरी ओर कोई डॉक्टर रोगी को बचाने के लिये चीरफाड़ कर रहा है। वह रोगी आयुपूर्ति वश मर गया तो यहाँ द्रव्यहिंसा हुई पर भावहिंसा के अभाव के कारण हिंसा का फल जो पाप बन्ध था वह उसके रञ्च मात्र भी नहीं हुआ।
यहाँ सिद्धान्त यह है कि एक (द्रव्य) हिंसा करके भी हिंसा का फल नहीं पाता है और दूसरा द्रव्य हिंसा न करके भी हिंसा का फल पाता है। यही तो अनेकान्त सिद्धान्त है, यही जैन धर्म का मर्म है। गुरूदेव ने वस्तुतः यहाँ रहस्यमयी बात कही है॥७॥ ७. व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् ।
नियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ।। ४६ ।। पुरुषा.॥ अर्थ - रागादि भावों के वश से प्रवृत्त - अयत्नावार पूर्वक प्रमाद अवस्था मे जीव मरो अथवा न मरो हिंसा तो निश्चित आगे ही दौड़ती है और बन्ध निरन्तर होता ही है।
युक्ताचरणस्य सतो रामाधावेशमन्तरेणापि।
न हि भवति जातु हिंसा प्राण व्यपरोपणादेव ॥ ४५. पुरुषा. ॥... USMSASRAREasReasarsaNSAREERRERNagarsuasasara
धर्मानन्द श्रायफायर १२४