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KukraKAmasmeerinkunaccurricsartanatramBasisix देने का निर्णय लिया और एक ही प्रकार के अनाज की दो ढेरी लगवाकर उसे बुलाकर किसी एक को लेने को कहा । तदनुसार उसने नक्षत्र शुभ मुहूर्त में
आकर एक राशि ले ली उसे खोलकर देखा तो उसमें पैसे, चवन्नी आदि कुछ निकले तथा कंकड़-पत्थर भी थे। अब राजा ने मंत्री से कहा - दूसरी ढेरी खोलो, देखा तो का जानते ही, पा, माणिनि सारे कहा, देखो ! मैं देना चाहता हूँ और वह लेना चाहता है, परन्तु इसका अन्तराय कर्म दोनों ओर अर्गल लगाये आडाखड़ा है। यह है अन्तराय की शक्ति ॥ ३३ ॥ • सम्यग्ज्ञान का लक्षण
न्यूनाधिक विपरीत बिन, वस्तु यथारथ ज्ञान ।
सम्यक्त्वी के होत वह, सम्यग्ज्ञान प्रधान ॥ ३४ ॥
अर्थ - वस्तु स्वरूप को ज्ञात करना, जानना ज्ञान का कार्य है। परन्तु सभी ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान नहीं कहा जाता है क्योंकि कोई पदार्थ के कुछ अंशों को ही विदित कर सन्तुष्ट हो जाता है और कोई जो है उससे अधिक मान बैठता है तो कोई विपरीत समझ लेता है । ये सभी ज्ञान सच्चाई के परे हैं। याथात्म्य से हीन हैं। ऐसे ज्ञान मिथ्या हैं । सम्यग्ज्ञान क्या है ? इस प्रश्न का समाधान देते हुए यहाँ आचार्य समझा रहे हैं -
जो ज्ञान न्यूनता-कमी और अधिकता तथा विपरीतता से रहित जो वस्तु जैसी है उसे ठीक उसी रूप में संशय, विपर्यय, अमध्यवसादि दोषों से रहित अवगत करता है, जानता है उसे ही सम्यग्ज्ञान कहा जाता है ।। ३४ || ३४. अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं बिना च विपरीतात् ।
निःसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमामिनः ।। ४२ ॥ रत्न. श्रा. । अर्थ - न्यूनता रहित, अधिकता रहित, विपरीतता रहित और संदेह रहित व्युत स्वरूप को यथार्थ जानमा सम्यग्ज्ञान है ऐसा आगम के ज्ञाता सर्वज्ञ और गणधर देव ने कहा है। KARNATAKATARIANGSTEROUSUScricinamaAKEANAGAR
धनातिन्द्र श्रावकःचार-१०८