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AXTARAN AUSTRATAN D ARTLARARANG घटादि बनाता है। उसी प्रकार गोत्रकर्म भी जीव को नीच और ऊंच कुलों में उसकी भावनानुसार उत्पन्न कराता रहता है। यही नहीं एक ही जीव को कभी उच्च घराने में और कभी नीच-ओछे कुल में जा डालता है ।। ३२ ।। • आठवाँ अन्तराय कर्म स्वरूप
नृप इच्छा के होत भी, भण्डारी नहीं देय।
अन्तराय उदय यह जीव, धन आदि नहीं लेय ॥ ३३ ॥ अर्थ - लोकोक्ति प्रसिद्ध है “दाता देय भण्डारी पेट पिराय" अर्थात् उदार चेता सत्पुरुष द्वारा किमिच्छक दान दिये जाने पर कंजूस आश्चर्य और अफसोस करता है परन्तु कोई ऐसे भी होते हैं जो दानी को दान नहीं देने देते। यथा कंजूस भण्डारी । इसी प्रकार अन्तराय कर्म भी दाता की इच्छा होने पर भी वह दान नहीं दे पाता और दान ग्रहण करने वाले को ग्रहण भी नहीं करने देता।
इसी से इसके पाँच भेदों में दानान्तराय और लाभान्तराय भी हैं। प्रथम लेने वाले की इच्छा होने पर दाता को देने नहीं देता और दूसरा लेने वाले को लेने भी नहीं देता । उदाहरण को दिगम्बर साधु दाता के यहाँ आहार को चर्या करते हुए गये । विधिवत् पड़गाहन किया, आहार देना चाह रहा है और साधु भी लेने-पाने पूर्ण आशा कर रहा है परन्तु अन्तराय महाराज मध्य में आ कूदे तो क्या हुआ ? न तो दाता दे सका और न पात्र ले ही पाया । अन्तराय आ गया। यह है इस कर्मराज का चमत्कार । यह विचार कर धर्म ध्यान, पूजा, भक्ति आदि कार्यों में विघ्न उपस्थित नहीं करना चाहिए।
अन्तराय के सम्बन्ध में एक उपाख्यान याद आया है। एक समय किसी राजा से मंत्री ने कहा, महाराज ! आपके राज्य में सभी सुखी हैं, पर आपका एक ज्योतिषी बहुत दुखी है । दारिद्रय से दुखी है उसे दान देना चाहिए । राजा ने विचारा ओर कुछ चिन्तित हुआ। मन्त्रियों के बार-बार प्रार्थना करने पर उसे YARANAN TRA UMAANANANANANANRARAUNA UNATAKA
मणिन्द प्रावकाचार-~१०७