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SABRERASAAUGSBAKARANASABAVA NASASALARINASAK बन्धिनः क्रोधमान माया लोभाः - अनन्तसंसार का कारण होने से मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है। उस मिथ्यात्व की अनुबन्धी ही अनन्तानुबंधी है ऐसा जानना । यद्यपि दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबंधी का उदय है और बंध भी है पर वहाँ मिथ्यात्व का बन्ध भी नहीं उदय भी नहीं । सो भावी नैगमनय की अपेक्षा वहाँ पर भी यह परिभाषा घटित हो जाती है क्योंकि दूसरे गुणस्थान को प्राप्त जीव नियम से प्रथम गुणस्थान को प्राप्त होता है।
अनन्तानुबंधी चारित्र मोहनीय का भेद है पर यह सम्यक्त्व और चारित्र दोनो गुणों का घात करती है। धवला पुस्तक एक में बताया है -
“अनन्तानुबंधिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात्...." इत्यादि ।
इस अनन्तानुबन्धी कषाय की वासना संख्यात भव, असंख्यात भव, अनन्त भव तक बनी रहती है। चारित्रसार ग्रन्थ में इस विषय का स्पष्टीकरण इस प्रकार मिलता है - "काहू पुरूष ने शोध किया, पीले क्रोध मिटि
और कार्य विषै लग्या तहाँ क्रोध का उदय तो नाही परन्तु वासना काल रहै । तेतै जीहस्यों क्रोध किया था तीहस्यों क्षमा रूप भी न प्रवर्त सो मैं वासना काल पूर्वोक्त प्रकार सब कषायनिका नियम करके जानना। (चा. सा. ९०/१)
अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभकी उपमा देते हुए आचार्य लिखते हैं कि - अनन्तानुबंधी क्रोध पत्थर पर खींची गई-उकेरी गई लकीर के समान चिरकाल तक बनी रहती है।
मान - जिस प्रकार पत्थर किसी तरह नहीं नमता उसी प्रकार जिसके उदय से जीव किसी भी तरह नम्र न हो उसको शैल समान मान कहते हैं यही है अनन्तानुबन्धी मान।
माया - बाँस के पेड़ की जड़ में सबसे अधिक वक्रता होती है उस प्रकार की वक्रता कुटिलता जिसमें मौजूद हो वह अनन्तानुबन्धी माया कहलाती है। BABASAVARATALANATURAALEANACARAVANZGARNARANAZEK
धर्मानन्द भाषकाचार१२०