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* अथ तृतीय अध्याय * • हिंसा अहिंसा का स्वरूप--
आतम शुध परिणाम की, विकृति हिंसा जान। शुद्ध परिणति ही आत्म की, अहिंसा तत्त्व पिछान ॥१॥ अर्थ - दोहा गत मूल पंक्ति में निश्चय नय की मुख्यता से हिंसा और आहेसा का लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं कि रत्नत्रय स्वरूप निज शुद्ध परिणामों से च्युति ही हिंसा है। राग, द्वेष तथा कषायों का उद्रेक रत्नत्रय गुण को मलिन करता है विकृत करता है और जीव दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यात्व रूप परिणमन कर सम्यक्त्व गुण का घातक-हिंसक कहलाता है इसी प्रकार मिथ्यात्व सहित उसका ज्ञान भी मिथ्याज्ञान और चारित्र भी मिथ्याचारित्र हो जाता है इस प्रकार के विपरिणमन का नाम ही हिंसा है। सत्संगति से जब जीव को निज स्वरूप की पहिचान हो जाती है और मिथ्यात्व अविरति प्रमाद से दूर हटता हुआ स्वस्वभाव रूप परिणमन करता है, तब उसकी उस वीतराग परिणति को ही अहिंसा कहते हैं।
यह अहिंसा सब धर्मों से सब व्रतों से श्रेष्ठ है क्योंकि सभी धर्म और सभी व्रत उसमें गर्भित हैं। जगत में जितने भी उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब अहिंसा के ही पर्यायवाची हैं।१॥
१. आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् ।
अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।। ४२ । पु. सि. ॥ अर्थ - आत्म परिणाम - रत्नत्रय स्वभाव का घात करने में कारण होने से यह पाँचों पाप समुदाय हिंसा ही है। झूठ वचन आदिक भेद कथन केवल शिष्यों को समझाने के लिये उदाहरण रूप से कहे गये हैं। SABRITISATSANKEasareezarasasaMARATSASReassaxASIResu
धणिन्द श्रावकाचार-११३