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सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग
शंका कांक्षा ग्लानि नहीं, तत्त्व-कुतत्त्व पिछान । उपगूहन वात्सल्य थिति, अंग प्रभावन जान ॥७॥ अर्थ - सम्यग्दर्शन की निर्मलता व युष्टि के कारण भूत आठ हैं, इसी से ये अंग कहलाते हैं।
वे हैं - १. जिनेन्द्र प्रणीत तत्त्वों के विषय में शंका नहीं करना । अर्थात् निःशंकित अंग, २. निः कांक्षित अथात् आगामी भव में इन्द्रिय अन्य विषयों की वाञ्छा नहीं करना, ३. निर्विचिकित्सा अंग अर्थात् धर्म और धर्मात्माओं में ग्लानि नहीं करना, ४. अमूढष्टित्व अंग अर्थात् सदसत् तत्त्वों का विचार कर सुतत्त्वों समीचीन तत्त्वों का ग्रहण करना, श्रद्धान करना, ५. उपगूहन अंग - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्रतिकूलता व अशुभ कर्मोदय में यदि कोई साधर्मी भाई-बहिन या साधु-सन्तों द्वारा अपने व्रतों-नियमों, त्याग, षड्कर्मों में दोष लग जाये, व्रतादि भंग हो जाय तो उसे छिपाना, जन सामान्य में प्रकट न कर प्रच्छन्न रूप से अपराधी को समझा कर दूर करने का प्रयत्न करना, ६. वात्सल्य अंग - धर्म और धर्मात्माओं में गौ-वत्ससमान निष्कपट प्रीति करना, ७. स्थितिकरण अंग - धर्मी जन-यति या श्रावक किसी विशेष परिस्थितिवश, व्रतादि धर्म क्रियाओं से च्युत हो जाय तो उसे धैर्य बंधा उपदेशादि देकर पुनः धर्म में दृढ़ता से स्थापित करना और ८ विद्या, मंत्र विशेष पंचकल्याणादि, विधि-विधान, रथोत्सवादि द्वारा जिनधर्म का माहात्म्य प्रकट करना प्रभावना अंग है।। ७ ।।
...अर्थ - तीन मूढ़ता, आठ मद, ६ अनायतन, आठ शंकादि दोष - ये २५ सम्यग्दर्शन के दोष हैं। सम्यकच के आठ अंगों के पालन से शंकादि दोषों का निराकरण होता है ।।६।। LA CASASANAYAN NUMARANATHUN NATAS ATANRK VABANA
धमनिवद श्रावकाचार-८३