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SAMANAR
● निषेध्य देशादि स्वरूप
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जिससे समकित मलिन हो, व्रत दूषित हों आप ।
देश द्रव्य नर कर्म वह, सेवो नहिं कदापि आप ॥ २२ ॥ अर्थ- आचार्य श्री कहते हैं कि आत्म कल्याणेच्छुओं को अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल रखने की भावना उन द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यक्ति, देशादि का त्याग करना चाहिए जिनके सेवन से सम्यक्त्व दूषित हो और व्रतों में भी अतिचार लगने की संभावना हो । यहाँ इस कथन से स्पष्ट होता है कि उपादान सही होने पर भी बलवान बाह्य निमित्त उसकी दृढ़ता को चलायमान करने में समर्थ हो सकते हैं। अतः उनसे दूर रहना चाहिए ॥ २२ ॥
२२. (क) सग्रन्थास्ते सरागाश्च ब्रह्मा विष्णु महेश्वराः । रागद्वेषमदक्रोधादिलोभमोहादि योगतः ॥
अर्थ - जो परिग्रह सहित हैं ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव सरागी हैं राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोहादि से कलुषित चिन वाले भी होने से वे सरागी सिद्ध होते हैं। (ख) रागवन्तो न सर्वज्ञाः यथा प्रकृति मानवाः 1
रागवन्तश्च ते सर्वे न सर्वज्ञास्ततः स्फुटं ॥
अर्थ - वस्तु स्वभाव इसी प्रकार है कि मनुष्यादि जो जीव सरागी हैं वे सर्वज्ञ भी नहीं होते । ब्रह्मा, विष्णु महेशादि रागी हैं और द्वेषी भी । मोह के साथ अज्ञान का होना नियामक है अतः यह बात स्पष्ट है कि रागी-द्वेषी ब्रह्मा आदि देव सर्वज्ञ नहीं है। आभूषण, और भी "आयुधप्रमदाभूषाकमंडलादियोगतः " - अस्त्र-शस्त्र, स्त्री, कमंडलु आदि बाह्य सामग्रियों से सहित होने से भी उनकी सरागता स्पष्ट होती है, व्यक्त होती है।
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(ग) मलिनं दर्शनं येन येन च व्रत दूषणम् ।
तं देशान्तं न तिष्ठेत् तत्कर्माण्यपिनाश्रयेत् ॥
अर्थ - जिससे सम्यग्दर्शन मलिन होता है, व्रत दूषित होता है उस व्यापार को स्वीकार न करें और उस स्थान, देश विशेष में न ठहरें जहाँ निवास करने से सम्यग्दर्शन
और व्रत में दूषण लगता है।
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. धर्मानन्द श्रावकाचार १००
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