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ALLROARRARAUATAN KERUSAKASAN UKURZINA वह जीव है, २. चेतना रहित अजीव कहलाता है, ३. कर्मों का आत्मा में आना आम्रव है, ४. कर्मों का आत्म प्रदेशों के साथ एक-मेक होना बंध है, परिणाम विशेष से कर्मों का आना, रूक जाना संवर है, पूर्वबद्ध कर्मों का आत्मा से एकदेश क्षय होना निर्जरा है और सर्वकर्म क्षय होना मोक्ष है॥२०॥ • आयतनों के विपरीत बनाया स्वरूप -
रागी द्वेषी देव पुनि, हिंसा पोषक शास्त्र। परिग्रही गुरु तीव्र ये, नहीं इनके सेवी श्रद्धापात्र ॥ २१ ॥
अर्थ - पूर्वोक्त लक्षण वाले रागी-द्वेषी देव, कुपथ-हिंसात्मक धर्म प्रतिपादक खोटे शास्त्र तथा परिग्रही विषयाशक्त गुरु ये तीनों ही मिथ्यारूप हैं इनका सेवन करने वाले तीन प्रकार के अंधभक्त मिलकर ६ अनायतन कहलाते हैं क्योंकि इन के द्वारा सम्यग्दर्शन मलिन होता है, घात होता है। इनका त्याग करना चाहिए । इनका विशेष स्वरूप लिख चुके हैं ॥ २१ ।।
२०. जीवाजीवाश्रवाः बन्धः संवरोनिर्जरा तथा
मोक्षश्च सप्त तत्त्वानि श्रद्धीयन्तेऽहंदाज्ञया ।। अर्थ - जीव, अजीव, आम्रच, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व है - जिनेन्द्राज्ञा के अनुसार इनका श्रद्धान करना चाहिए। ये श्रद्धेय हैं, सम्यग्दर्शन के विषय हैं ।। २० । २१. दोससहियपि देवं जीवहिंसा संजुत्तं घम्म।
गंथा सत्थं च गुरूं जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्टी ।। अर्थ - रागी-द्वेषी को देव मानना, जीवहिंसा युक्त कार्य को धर्म मानना, उसी प्रकार सरागी के वचनों से रचित आप्त वचन के प्रतिकूल ग्रन्थ को आगम मानना, जो निर्ग्रन्थ वीतरागी नहीं है उन्हें गुरू मानना यह मिथ्यात्व है। कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरू को मानने वाला वह मिथ्यादृष्टि होता है ।। २१ ।। ARARAKABANATA IKANINARASLARARAQUARANA
धर्मानन्द प्रावकाचार-९९
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