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KRU NRK anadaramüracaGXRRUKATURUNAN • प्रथम कर्म
जिमि पट आवृत वस्तु को, जान सकति नहीं कोय।
ज्ञानावरणी के उदय वस, जीव अज्ञानी होय ।। २६॥
अर्थ - ज्ञानावरणीय में दो वर्ण शब्द हैं ज्ञान और आवरण। ज्ञान का अर्थ है जीव की ज्ञातृत्व जानने की शक्ति और आवरण का अर्थ है आच्छादन करना । अर्थात् जिससे जीव का ज्ञान गुण ढका जाय या जो ज्ञान गुण को प्रकट न होने दे जो ज्ञानाबरणी कई कहते हैं। जिस प्रकार प्रतिमा पर वस्त्र आच्छादित करने पर उनके विषय का ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार इस कर्म के उदय से तत्त्वज्ञान प्रकट नहीं होता । अतः वह जीव अज्ञानी बना रहता है ।। २६ ।।
... १. जो ज्ञान को आवृत करता है या जिसके द्वारा ज्ञान गुण आवृत किया जाता है वह ज्ञानावरण है। २. जो दर्शन को आवृत करता है वह दर्शनावरण कर्म है। ३. जो सुख-दुःख का वेदन कराता है वह वेदनीय है। ४. जो मोहित करता है वह मोहनीय है। ५. जिसके द्वारा जीव नरकादि भव को प्राप्त करता है और जो एक गति में जीव को रोके रखता है वह आयु कर्म है। ६. जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है वह नामकर्म है। यह चित्रकार की तरह शरीरादि की रचना करता है। नानामिनोति इति नाम- अनेक प्रकार के कार्य बनावे वह नाम कर्म है । ७. जिसके द्वारा जीव उच्च नीच संज्ञान को प्राप्त करता है वह गोत्र कर्म है । ८. जो दाता और पात्र के बीच उपस्थित होकर विघ्न डालता है वह अन्तराय कर्म है।
संदर्भ प्राप्त प्रश्न - केवल विभावरूप आत्म परिणामों के द्वारा गृहीत पुद्गलज्ञानावरणादि अनेक भेदों को कैसे प्राप्त होते हैं ?
उत्तर - जिस प्रकार एक बार खाये गये अन्न का रस, रूधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, वीर्य -इन सात धातु रूप परिणमन होता है उसी प्रकार एक बार भी किया गया विभाव परिणमन का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणाएँ ज्ञानावरणादि सप्त कर्म रूप तथा आयु सहित आठ कर्म रूप परिणमन करती हैं। यही प्रकृति बन्ध है ।। २५ ॥ AUKARATAN DARAUanaxan ANAR CARACASURAXANTES
मानन्द श्रावकाधार-१०३