________________
LACASASAYAEKSASÁGÁSUN
KARANGAN SENZERETUR
अर्थ- मानव जीवन अनेक रोग, शोक, आधि, व्याधियों से घिरा होता है। कब किस निमित्त से ये आपत्तियाँ उमड़ पड़ती हैं यह निश्चित नहीं होता। तीव्र कषायादि के उदय आने पर असह्य वेदना से, कलुषित खोटी संगति, दर्प, अज्ञानता, मंत्र-तंत्र-यंत्रादि के मिथ्या चमत्कारों से प्रमाद वश सामान्य त्यागी, व्रती, क्या विशेष संयमी, साधु-सन्त आदि भी अपने व्रत, शील, संयम से स्खलित, च्युत, चलायमान हो जाते हैं। धर्म से विपरीत आचरण करने लगते हैं।
-
इस स्थिति में धर्मानुराग से, सिद्धान्त रक्षण भाव से तथा करुणा, दया, वात्सल्य से समझाकर, तत्त्वोपदेश देकर प्रेम से पुनः धर्मारूढ़ करना स्थितिकरण अंग है। अर्थात् स्वयं हो या अन्य जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र से पराङ्मुख हो रहा हो उसे येन-केन एकारेण सन्मार्ग पर लाना, पुनः कर्तव्य निष्ठ करना स्थिति करण है। उसे मानव जीवन और धर्म की दुर्लभता समझाना तथा व्रत भंग के कटु फल दुर्गति, दुःख तापादि दर्शाकर भय उत्पन्न कराना, धिक्कारादि से तिरस्कृत कर लज्जा उत्पन्न कराना आदि साम, दाम कर धर्म में सुस्थिर करना चाहिए। कभी उसकी प्रशंसा भी कर मार्गारूढ़ किया जा सकता है यथा आप तो महान् हैं, उच्च कुलोत्पन्न हैं, वीर हैं, साहसी, उत्तम कार्यकर्ता हैं, फिर यह क्या कार्य कर रहे हो ? क्या यह आपके अनुकूल है ? आप जैसे महापुरुष या सन्त को ऐसा करना योग्य है क्या ?
इत्यादि वाक्यों से इस प्रकार उद्बोधन करने पर वह अपनी भूल को स्वयं अनुभव कर सुधार करने को उद्यमी हो जायेगा । यथा प. पू. १०८ मुनि श्री वारिषेण मुनिराज के द्वारा एकाक्षी स्त्री में अनुरक्त पुष्पडाल मुनि को १२ वर्ष के सुकठिन उपायों से भावलिंगी साधु बना आत्म कल्याण में तत्पर किया था । आगम से इसकी कथा अवश्य पढ़िये और स्थितिकरण अंग पालन कर अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाने का प्रयत्न करिये ॥ १३ ॥
NANANZZANAKSUDKANANZEICHNAUZEZKASAGAGAGAGAGAEMSKER
धर्मानन्द श्रावकाचार ~८९