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TANAH MELAKANAN UNIEKU SALUTACAU विनय, भक्ति, श्रद्धाभाव रखने से उच्चगोत्र की प्राप्ति होती है जो सम्यग्दर्शन प्राप्ति और विकास का प्रमुख कारण है। अतएव उपगूहन अंग भी निर्मल सम्यग्दर्शन का विशेष अंग है, गुण है । इस गुण में जिनेन्द्रदत्त श्रेष्ठ ने विशेष ख्याति प्राप्त की है। आगम में उल्लेख है कि कपट वेशधारी क्षुल्लक को विनय और श्रद्धा से विश्वास कर अपने चैत्यालय में निवास स्थान दे दिया।
एक दिन सेठ बाहर गाँव जाने तैयार हुआ तो मायावी क्षुल्लक को चैत्यालय रक्षण का भार प्रदान कर निकला परन्तु कुछ विलम्ब होने से जहाज चूक गया और वापिस घर की ओर लौटा । इधर अवसर पाकर वह कपटी वैडूर्यमणि का छत्र चुराकर भागा, परन्तु उसकी कान्ति को नहीं छुपा सका और उसे पकड़ने को दौड़े इसी बीच सामने से सेठ आता मिला, उसने शान्ति से कारण ज्ञात किया और द्वार रक्षकों को काटकर कहा, "अरे, छत्र तो मैने ही मंगाया है, आप क्षुल्लक महाराजजी को क्यों परेशान करते हो । फलत: वह मायावी भी सच्चा साधु हो गया और धर्म का भी रक्षण हो गया। अतः हमें इस अंग का पालन करना चाहिए॥ १२ ॥ • छठवाँ स्थितिकरण अंग का लक्षण
सकित ज्ञान चरित्र से, विचलित निज पर जान । पुनः धर्म में दिढ़ करन, सुस्थिति करण पिछान ॥ १३ ॥
१२. धर्मोऽभिवृर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया।
परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ।। २७ पु. सि. । अर्थ - (उपगूहन का दूसरा नाम उपवृहण है यहाँ उपतहण की अपेक्षा भी कश्चन जानना।) उपवृहण गुण के लिए मार्दव आदि भावना से सदा अपनी आत्मा का धर्म बढ़ाने योग्य है और दूसरे के दोषों को ढकना भी योग्य है।
नोट - रत्नत्रय स्वभाव की सिद्धि पुष्टि एवं वृद्धि करना उपवृहण है और दूसरे के दोषों को प्रगट न करना उपगूहन है। &usgraceticiasuresKRANASATREASEASANKRAcasasa
धर्मानन्द श्रावकाचार-de