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NINAKARARAANANUNATARREU SANAKASRETNARANASA होने पर घृणा-ग्लानि नहीं करना सम्यग्दर्शन का तीसरा निर्विचिकित्सा नामक गुण है । महान तार्किक विद्वान् आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने भी अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ के १३ वें श्लोक में यही भाव निरुपित किया है। विशेष रूप से जानने के इच्छुक को वहाँ से ज्ञातव्य है । इस अंग के पालन में उद्यायन राजा का नाम प्रसिद्ध है । इसे ज्ञात कर हमें ग्लान, सग्न, वृद्धादि साधुओं की अनुराग पूर्वक सेवा, सुश्रूषा करना चाहिए । मल, मूत्र, वमन आदि होने पर उनकी शुद्धि करने का बोभित प्रयत्न कला साहिए॥ १० ॥ • चौथा अमूददृष्टि अंग का लक्षण कुपथ कुमार्गिन को तथा, मन से नाहिं सराही ॥ तन से नुति वचन प्रशंसा न करे, अमूढ दृष्टि कहाहि ॥११।।
अर्थ - जिनेन्द्र देव प्रणीत मोक्षमार्ग सन्मार्ग है, रत्नत्रय धारी इस पथ के राही सम्यक मार्गी कहलाते हैं, इनसे विपरीत हिंसादि पाप वर्द्धक यज्ञ यज्ञादि करना, वृक्ष पौधों की पूजा, मिथ्या दृष्टि देवी-देवताओं, पाखण्डियों द्वारा चलाया मार्ग कुपथ है क्योंकि इससे आत्मा मलिन, अनन्त संसार सागर में भ्रमण करता है। ऐसे कुमार्ग और उस पर चलने वालों की मन, वचन, काय से प्रशंसा, स्तुति, विनयादि नहीं करना अमूढ दृष्टि नामक सम्यग्दर्शन का अंग है। इसका पालन करने में आत्मा का श्रद्धागुण पुष्ट होता है। इस अंग के पालन में रेवती रानी ने प्रसिद्धि प्राप्त की थी। क्षुल्लक जी द्वारा परीक्षार्थ ब्रह्मा,
१०. क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु ।
द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया॥ पु. सि. २५ ॥ अर्थ - भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी इत्यादि नाना प्रकार की अवस्थाओं में तथा विष्टा आदि पदार्थों में ग्लानि नहीं करना निर्विचिकित्सा अंग है। REETERMIRDERMATREATMASTERESExecreasKARHATIRSANAMA
धमनिन्द प्रावकाचार८६